ऊं कार : स्वरूप और मंत्र
सनातन मान्यता में ओंकार का सर्वाधिक महत्व है। हर मंत्र के शुरूआत से लेकर ध्यान की सर्वोच्च अवस्था तक ऊंकार का स्वर समाहित है। कुछ समय पहले विज्ञान ने अपने स्तर पर खोज की कि सूर्य की किरणों से उत्पन्न एकमात्र ध्वनि ऊं ही है। कुछ वैज्ञानिकों ने ध्वनि के पदार्थ पर प्रभाव को देखते हुए प्रतिपादित किया कि धातु पर बिखरे कणों पर ऊंकार ध्वनि का असर कुछ इस प्रकार होता है कि कण स्वत: ही समबाहु चतुर्भुज के रूप में व्यवस्थित हो जाते हैं।
ऊं अपने आप में एकाक्षरी मंत्र भी है और सबसे शुद्ध चिन्ह भी। किसी भी संस्थान में जहां यह शुद्ध चिन्ह लगा हो, वहां से नकारात्म ऊर्जा स्वत: ही समाप्त होने लगती है।
हमारे ऋषियों ने सृष्टि की आदि से कल्पना की और उसके स्वरूप को पहचानने का प्रयास किया। प्राय: सभी प्राचीन धर्म स्वीकार करते हैं कि सृष्टि के आरंभ में केवल नाद ध्वनि थी। इस ध्वनि से सभी शब्द बने। पाणिनी ने इन्हें “अ इ उ ण” में पिरोया है। ऋषियों ने इसी नाद को आदि से अंत तक सर्वव्याप्त माना है। उसे परमब्रह्म की व्याख्या और परिभाषा भी माना है। भूत, वर्तमान और भविष्य जो कुछ भी है इसी नाद से है। मांडूक्योपनिषद् का पहला मंत्र ही इस प्रकार है
“ऊंमिदित्येतदक्षरमिद ॅ सर्व तस्योपव्याख्यानम्।
भूतं भव्यं भवद्भविष्यदिति सर्वमोंकार एव, यच्चान्यत्त्रि
कालातीतं तदप्योंकार एव।”
सनातन मान्यता में किसी भी कार्य के प्रारंभ में आंकार शब्द का उच्चारण होता है। स्मृति का आदेश ही है कि “ओंकारपूर्वमुच्चार्य ततो वेदमधीयेत” यानी पहले ओंकार का उच्चारण करें, फिर वेद पाठ प्रारंभ करें।
वेदों में ऊं के स्वर के बाद अन्य देवताओं से लगभग सभी मंत्रों में ऊं का उपयोग सूत्र की शुरूआत के रूप में किया गया है। विवेकानन्द ने राजयोग पुस्तक में निर्विकल्प समाधि के लिए ऊं मंत्र के उच्चारण की सलाह दी है। ऊं मंत्र अपने आप में तीन भागों में बंटा है।
ओ३म् (ॐ) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकाररूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। तदनंतर सात करोड़ मंत्रों का आविर्भाव होता है। इन मंत्रों के वाच्य आत्मा के देवता रूप में प्रसिद्ध हैं। ये देवता माया के ऊपर विद्यमान रह कर मायिक सृष्टि का नियंत्रण करते हैं। इन में से आधे शुद्ध मायाजगत् में कार्य करते हैं और शेष आधे अशुद्ध या मलिन मायिक जगत् में। इस एक शब्द को ब्रह्मांड का सार माना जाता है, 16 श्लोकों में इसकी महिमा वर्णित है।