ज्योतिषीय गीता सार (Astrological Geeta Saar) गीता की ही विभिन्न परतों में शामिल है। महाभारत के युद्ध से ठीक पहले कृष्ण ने अर्जुन को जीवन के सूत्र दिए। गीता के इन सूत्रों में नीतिगत बातें अधिक हैं। कई साल तक ज्योतिष पढने के बाद मुझे लगा कि सामान्य मानवीय व्यवहार के साथ जीवन जी रहे लोगों को उनकी समस्याओं का समाधान गीता में मिल सकता है।
ज्योतिषी के पास आने वाले लोगों में अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जिनकी समस्या वर्तमान परिस्थिति के इतर मानसिक होती है।
इस प्रकार की समस्याओं के निदान के लिए गीता में उपचार मिलते हैं। शुरुआत में मैंने प्रयोग के तौर पर लोगों को ये उपचार बताए। साथ ही उन लोगों को यह भी स्पष्ट कर दिया कि यह प्रयोग के तौर पर ही हैं। जिन जातकों ने गीता के उपचार किए उनमें से अधिकांश का भले ही इच्छित कार्य नहीं हुआ हो लेकिन संतुष्ट सभी नजर आए।
ऐसा नहीं है कि गीता ने (Astrological Geeta Saar) उन्हें शांत कर दिया बल्कि लगभग सभी को या तो कार्य पूरे होने के रास्ते नजर आने लगे या फिर उन लोगों को नए रास्ते मिल गए। बहुत अधिक विस्तार से यहां चर्चा नहीं की जा सकती लेकिन प्राथमिक तौर पर जो उपचार हैं उन पर एक प्रारंभिक दृष्टिकोण दे रहा हूं ।
जिन जातकों का चंद्रमा कमजोर होता है उनमें इसके प्रभाव अधिक तेजी से दृष्टिगोचर होते हैं।
अध्यायों में ज्योतिषीय उपचार (Astrological Geeta Saar) के संकेत:
गीता के अठारह अध्यायों में कृष्ण ने जो संकेत दिए हैं उन्हें मैंने ज्योतिष के आधार पर विश्लेषित करने का प्रयास किया है। इसमें ग्रहों का प्रभाव और उनसे होने वाले नुकसान से बचने और उनका लाभ उठाने के संबंध में यह सूत्र बहुत काम के हैं-
प्रथम अध्याय – शनि संबंधी पीडा के लिए
द्वितीय अध्याय – जब जातक की कुण्डिली में गुरु की दृष्टि शनि पर हो
तृतीय अध्याय – जब 10वां भाव शनि, मंगल और गुरु के प्रभाव में हो
चतुर्थ अध्याय – कुण्डली का 9वां भाव तथा कारक ग्रह प्रभावित हो
पंचम अध्यायय – भाव 9 तथा 10 का अंतर्परिवर्तन हो
छठा अध्याय – तात्कालिक रूप से भाव 8 एवं गुरु व शनि का प्रभाव हो, साथ ही शुक्र की भाव स्थिति हो
सप्तम अध्याय – 8वें भाव से पीडि़त और मोक्ष चाहने वालों के लिए
आठवां अध्याय – कुण्डली में कारक ग्रह और 12वें भाव का संबंध हो
नौंवा अध्याय – लग्नेश, दशमेश और मूल स्ववभाव राशि का संबंध हो
दसवां अध्याय – इसका आम स्वरूप है और कर्म प्रधानता है। सभी के लिए
ग्यारहवां अध्याय – जिनकी कुण्डली में लग्नेश 8 से 12 भाव तक हो
बारहवां अध्याय – भाव 5 व 9 तथा चंद्रमा प्रभावित होने पर
तेरहवां अध्याय – भाव 12 तथा चंद्रमा के प्रभाव से संबंधित
चौदहवां अध्याय – आठवें भाव में किसी भी उच्च के ग्रह की स्थिति में
पंद्रहवां अध्याय – लग्न एवं 5वें भाव के संबंध में देखेंगे
सोलहवां अध्याय – मंगल और सूर्य की खराब स्थिति में
अध्यायों के संकेत की टीका
गीता की टीका तो बहुत से योगियों और महापुरुषों ने की है लेकिन ज्योतिषीय अंदाज (Astrological Geeta Saar) में मुझे कहीं भी इसकी टीका नहीं मिली। बहुत दिन तक गुणने से कुछ सूत्र हाथ लगे हैं।
गीता की एक विशेषता यह है कि इसे पढने वाले व्यक्ति के अनुसार ही इसकी टीका होती है। यानि हर एक के लिए अलग। मैंने भी संकेत देने के साथ इस स्वतंत्रता को बनाए रखने की कोशिश की है।
संकेत मात्र ही होंगे तो आगे विश्लेषण करना आसान रहेगा। बहुत अधिक लिखूंगा तो स्वतंत्रता की संभावना कम हो जाएगी।
विषाद का अकेलापन– विषाद में आदमी को लगता है कि वह अकेला पड़ चुका है। आमतौर पर आदमी के गहन भीतरी विचार ऐसे होते हैं जो अधिकांश लोगों में कॉमन होते हैं। प्रथम अध्याय में मोह और कर्तव्य के बीच तनाव से उपजे अकेलेपन का वर्णन है। ऐसा ही विषाद शनि पैदा करता है। केमद्रुम योग में ऐसा विषाद देखा जाता है।
कृष्ण की दया– विषाद के बाद अर्जुन को गुरुज्ञान मिलता है कृष्ण से। शनि पर गुरू की दृष्टि से यह लाभ होता है। कुण्डली में यही स्थिति होने पर दूसरे अध्याय का पठन लाभ देता है।
शंका और समाधान– कर्म के प्रति शंका होना 10वें भाव पर शनि का प्रभाव है। इसके बाद जोश दिलाने का काम मंगल करता है और गुरु बताता है कि सही रास्ता क्या है।
कर्म के धर्म की स्थापना– व्यक्तित्व में स्थाई भाव की कमी को चौथा अध्याय पूरा कर सकता है।
धर्म और कर्म का मेल– नौंवे तथा दसवें भाव का अंतर्संबंध धर्म और कर्म में द्वंद्व पैदा करता है। ऐसे में पांचवा अध्याय दोनों का रोल स्पष्ट कर शंकाओं का समाधान प्रस्तुतत करता है।
कर्म शुरु कब किया जाए– जब आठवां भाव और गुरु तथा शनि का काल हो। यानि स्याह अंधेरी रात के बाद की रोशनी में यह अध्याय बताता है कि ‘अब’ शुरु किया जाए। शुक्र लालसा पैदा करता है और शनि लालसा के बावजूद विरक्त रखता है।
सभी समस्याओं का अंत– जब तक जीवन है समस्याएं बनी रहेंगी। फिर मोक्ष, सही सवाल। घटनाओं और साधनों का प्रभाव चित्त पर पडना बंद हो जाए। आमतौर पर जिन लोगों का आठवां भाव खराब हो यानि मोक्ष की ओर ले जाने की बजाय सांसारिकता में उलझाने वाला हो उन्हें इस अध्याय में अपेक्षित उत्तर मिलेंगे।
मौत का डर– जिन लोगों को मौत का डर सता रहा हो यानि आठवें भाव का संबंध बारहवें से हो उन्हें यह अध्याय पढना चाहिए।
खुद को जानने की कवायद– बहुत से लोगों में क्षमताएं तो बहुत होती है लेकिन वे बिलो-प्रोफाइल काम करते हैं और धीरे-धीरे अपनी क्षमताओं पर विश्वास खो देते हैं। लग्नेश, दशमेश और मूल स्वभाव राशि का संबंध होने पर ऐसे लोग फिर से अपनी लय पाने में कामयाब होते हैं। नवां अध्याय इसमें सहायता करता है।
अपनी पहचान– खुद को जानने की कवायद की पराकाष्ठा होती है खुद के स्वरूप तक पहुंचने की। ऐसे में कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि परमब्रह्म से पैदा हुए तुच्छ से दिखने वाले मनुष्य का असली स्वरूप क्या है। तत्वमसि और अहम् ब्रह्मास्मि का क्या अर्थ है यहीं पता चलता है।
काम लगातार करते रहें– काम करते-करते एक बार विचार आता है कि क्यों कर रहे हैं। इस प्रकार का विचार लग्नेश के आठवें से बारहवें भाव तक के जातकों में कई बार आता है। ऐसे में बिना आसक्ति के लगातार काम में जुटे रहने के लिए ग्यारहवां भाव प्रेरित करता है। कई शंकाओं का समाधान भी होता है।
प्रारब्ध और भाग्य के साथ– पिछले जन्मों में हमने जो कार्य किए उनके साथ ही हमें इस जन्म में पैदा होना होता है। इसके साथ ही इस जन्म के लिए भी ईश्वर हमें कुछ देकर भेजता है। नेमतों के लिए ईश्वर का शुक्रिया अदा करते हुए दिमाग को स्थिर करने का उपाय भक्ति योग में।
दूसरी दुनिया से संबंध– इसके लिए चंद्रमा और बारहवें भाव का संबंध होना चाहिए।
अकस्मात लाभ– आठवें भाव में उच्च का ग्रह अचानक अध्यात्मिक उन्नति का लाभ दिलाता है। इसके लिए नियमित तैयारी होनी चाहिए।
संभावनाएं– पिछले जन्म में क्या किया और इससे इस जन्म में कहां तक आगे बढा जा सकता है। पांचवा भाव लग्न को जो कुछ दे सकता है उसका लाभ लेने की कोशिश।
शक्ति हो और नियमित न हो– सूर्य या मंगल की कुण्डली में खराब स्थिति में यह अध्याय बहुत महत्वपूर्ण हो उठता है। इसके अध्ययन से अपनी गलतियों से बंद हो रहे रास्ते खुलते हुए नजर आने लगते हैं।