लघु पाराशरी सिद्धान्त के सभी 42 सूत्र (भाग-1)All 42 sutras of Laghu Parashari Siddhant |
ज्योतिष की एक नहीं बल्कि कई धाराएं साथ साथ चलती रही हैं। वर्तमान में दशा गणना की जिन पद्धतियों का हम इस्तेमाल करते हैं, उनमें सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाली विधि पाराशर पद्धति है। सही कहें तो पारशर की विंशोत्तरी दशा के इतर कोई दूसरा दशा सिस्टम दिखाई भी नहीं देता है। महर्षि पाराशर के फलित ज्योतिष संबंधी सिद्धांत लघु पाराशरी (Laghu Parashari Siddhant) में मिलते हैं। इनमें कुल जमा 42 सूत्र (42 Sutras) हैं।
वर्ष 2000 में मैंने सभी सिद्धांतों को लेकर नोट्स बनाए थे। उन्हीं नोट्स में हर नोट के शीर्ष पर मैंने सिद्धांत का हिंदी अनुवाद सरल हिंदी में लिखा था। अगर आप केवल इन मूल सिद्धांतों को पढ़ें तो आपके दिमाग में भी ज्योतिष फलित के संबंध में कई विचार स्पष्ट हो जाएंगे। मैं केवल मूल सिद्धांत के हिंदी अनुवाद को पेश कर रहा हूं, इसमें न तो टीका शामिल है, न मूल सूत्र…
1. यह श्रुतियों का सिद्धांत है जिसमें में प्रजापति के शुद्ध अंत:करण, बिम्बफल के समान लाल अधर वाले और वीणा धारण करने वाले तेज, जिसकी अराधना करता हूं, को समर्पित करता हूं।
2. मैं महर्षि पाराशर के होराशास्त्र को अपनी मति के अनुसार विचारकर ज्योतिषियों के आनन्द के लिए नक्षत्रों के फलों को सूचित करने वाले उडूदायप्रदीप ग्रंथ का संपादन करता हूं।
3. हम इसमें नक्षत्रों की दशा के अनुसार ही शुभ अशुभ फल कहते हैं। इस ग्रंथ के अनुसार फल कहने में विशोंतरी दशा ही ग्रहण करनी चाहिए। अष्टोतरी दशा यहां ग्राह्य नहीं है।
4. सामान्य ग्रंथों पर से भाव, राशि इत्यादि की जानकारी ज्योति शास्त्रों से जानना चाहिए। इस ग्रंथ में जो विरोध संज्ञा है वह शास्त्र के अनुरोध से कहते हैं।
5. सभी ग्रह जिस स्थान पर बैठे हों, उससे सातवें स्थान को देखते हैं। शनि तीसरे व दसवें, गुरु नवम व पंचम तथा मंगल चतुर्थ व अष्टम स्थान को विशेष देखते हैं।
6. (अ) कोई भी ग्रह त्रिकोण का स्वामी होने पर शुभ फलदायक होता है। (लग्न, पंचम और नवम भाव को त्रिकोण कहते हैं) तथा त्रिषडाय का स्वामी हो तो पाप फलदायक होता है (तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव को त्रिषडाय कहते हैं।)
6. (ब) अ वाली स्थिति के बावजूद त्रिषडाय के स्वामी अगर त्रिकोण के भी स्वामी हो तो अशुभ फल ही आते हैं। (मेरा नोट: त्रिषडाय के अधिपति स्वराशि के होने पर पाप फल नहीं देते हैं- काटवे।)
7. सौम्य ग्रह (बुध, गुरु, शुक्र और पूर्ण चंद्र) यदि केन्द्रों के स्वामी हो तो शुभ फल नहीं देते हैं। क्रूर ग्रह (रवि, शनि, मंगल, क्षीण चंद्र और पापग्रस्त बुध) यदि केन्द्र के अधिपति हों तो वे अशुभ फल नहीं देते हैं। ये अधिपति भी उत्तरोतर क्रम में बली हैं। (यानी चतुर्थ भाव से सातवां भाव अधिक बली, तीसरे भाव से छठा भाव अधिक बली)
8. लग्न से दूसरे अथवा बारहवें भाव के स्वामी दूसरे ग्रहों के सहचर्य से शुभ अथवा अशुभ फल देने में सक्षम होते हैं। इसी प्रकार अगर वे स्व स्थान पर होने के बजाय अन्य भावों में हो तो उस भाव के अनुसार फल देते हैं। (मेरा नोट: इन भावों के अधिपतियों का खुद का कोई आत्मनिर्भर रिजल्ट नहीं होता है।)
9. अष्टम स्थान भाग्य भाव का व्यय स्थान है (सरल शब्दों में आठवां भाव नौंवे भाव से बारहवें स्थान पर पड़ता है), अत: शुभफलदायी नहीं होता है। यदि लग्नेश भी हो तभी शुभ फल देता है (यह स्थिति केवल मेष और तुला लग्न में आती है)।
10. शुभ ग्रहों के केन्द्राधिपति होने के दोष गुरु और शुक्र के संबंध में विशेष हैं। ये ग्रह केन्द्राधिपति होकर मारक स्थान (दूसरे और सातवें भाव) में हों या इनके अधिपति हो तो बलवान मारक बनते हैं।
11. केन्द्राधिपति दोष शुक्र की तुलना में बुध का कम और बुध की तुलना में चंद्र का कम होता है। इसी प्रकार सूर्य और चंद्रमा को अष्टमेष होने का दोष नहीं लगता है।
12. मंगल दशम भाव का स्वामी हो तो शुभ फल देता है। किंतु यही त्रिकोण का स्वामी भी हो तभी शुभफलदायी होगा। केवल दशमेष होने से नहीं देगा। (यह स्थिति केवल कर्क लग्न में ही बनती है)
13. राहू और केतू जिन जिन भावों में बैठते हैं, अथवा जिन जिन भावों के अधिपतियों के साथ बैठते हैं तब उन भावों अथवा साथ बैठे भाव अधिपतियों के द्वारा मिलने वाले फल ही देंगे। (यानी राहू और केतू जिस भाव और राशि में होंगे अथवा जिस ग्रह के साथ होंगे, उसके फल देंगे।)। फल भी भावों और अधिपतियो के मुताबिक होगा।
14. ऐसे केन्द्राधिपति और त्रिकोणाधिपति जिनकी अपनी दूसरी राशि भी केन्द्र और त्रिकोण को छोड़कर अन्य स्थानों में नहीं पड़ती हो, तो ऐसे ग्रहों के संबंध विशेष योगफल देने वाले होते हैं।
15. बलवान त्रिकोण और केन्द्र के अधिपति खुद दोषयुक्त हों, लेकिन आपस में संबंध बनाते हैं तो ऐसा संबंध योगकारक होता है।
16. धर्म और कर्म स्थान के स्वामी अपने अपने स्थानों पर हों अथवा दोनों एक दूसरे के स्थानों पर हों तो वे योगकारक होते हैं। यहां कर्म स्थान दसवां भाव है और धर्म स्थान नवम भाव है। दोनों के अधिपतियों का संबंध योगकारक बताया गया है।
17. नवम और पंचम स्थान के अधिपतियों के साथ बलवान केन्द्राधिपति का संबंध शुभफलदायक होता है। इसे राजयोग कारक भी बताया गया है।
18. योगकारक ग्रहों (यानी केन्द्र और त्रिकोण के अधिपतियों) की दशा में बहुधा राजयोग की प्राप्ति होती है। योगकारक संबंध रहित ऐसे शुभ ग्रहों की दशा में भी राजयोग का फल मिलता है।
19. योगकारक ग्रहों से संबंध करने वाला पापी ग्रह अपनी दशा में तथा योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में जिस प्रमाण में उसका स्वयं का बल है, तदअनुसार वह योगज फल देगा। (यानी पापी ग्रह भी एक कोण से राजयोग में कारकत्व की भूमिका निभा सकता है।)
20. यदि एक ही ग्रह केन्द्र व त्रिकोण दोनों का स्वामी हो तो योगकारक होता ही है। उसका यदि दूसरे त्रिकोण से संबंध हो जाए तो उससे बड़ा शुभ योग क्या हो सकता है ?
21. राहू अथवा केतू यदि केन्द्र या त्रिकोण में बैइे हों और उनका किसी केन्द्र अथवा त्रिकोणाधिपति से संबंध हो तो वह योगकारक होता है।
लघुपाराशरी सिद्धांत में कुल 42 सूत्रों में से 21 सूत्र इस पहली कड़ी में पेश किए गए हैं। शेष 22 से 42 तक के सूत्र अगली कड़ी में देखिए… दूसरा भाग