मंदिरों के निर्माण का अद्भुत रहस्य mandir ka rahasya
भारतवर्ष में किसी भी क्षेत्र में कोई नई बसावट होती है तो शुरूआत में वहां लोकदेवता का वास होता है। भैरव इनमें प्रमुख हैं। भैरवजी एवं अन्यत लोकदेवता अज्ञात समस्याओं से बचाने में हमारी मदद करते हैं। जब स्थान का विकास होने लगता है तो क्षेत्र में हनुमानजी के मंदिर अधिक दिखाई देने लगते हैं। हनुमान मूल रूप से शिव के रुद्र हैं। हनुमानजी के साथ ही शिव के मंदिर (mandir) भी अस्तित्व में आते हैं और इसके बाद शक्ति के रूप सामने आने लगते हैं और स्थापना होती है शक्ति के देवी मंदिरों की। सभ्यता अपने विकास के अगले दौर में पहुंचती है, तो वहां भगवान गणेश आ विराजते हैं। वे न केवल शक्ति स्वरूप रूद्र और गणों के अधिपति हैं बल्कि रिद्धी और सिद्धी के अधिपति भी हैं। सभ्यता की समृद्धि अपने शीर्ष पर होती है तब वहां विष्णु मंदिरों की बहुतायत दिखाई देने लगती है। किसी नई बस्ती अथवा कॉलोनी में यह विकास अधिक स्पष्ट दिखाई देता है।
किसी स्थान विशेष पर मंदिरों के विकास का यह क्रम मोटे तौर पर ऐसा होता है। इसके साथ ही हर देव का एक विशेष क्षेत्र है। काशी में महादेव हैं, तो कामाख्या में देवी, वृंदावन में कृष्ण हैं, तो मुंबई में गणेश, कर्नाटक में मुरूगन हैं तो मदुरै में महालक्ष्मी। इन बड़े समूहों को हम नोड की तरह मान सकते हैं, जहां पूरी भारत भूमि एक सूत्र में बंधी है और देव अपने अपने कोण संभाले हुए है।
देश के अलग-अलग कोनों के इन शक्तिस्थलों पर ऊर्जा का भिन्न-भिन्न स्तर दिखाई देता है। अगर दूर-दराज का जातक इन मंदिरों में पहुंचता भी है, तो उस शक्ति से रूबरू हो सकता है, पर्यटन कर सकता है, लेकिन शक्ति के उस स्रोत के निरंतर संपर्क में रहना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है। इसके इतर आम साधक के लिए उसके क्षेत्र का मंदिर ही सर्वश्रेष्ठर ईष्ट साधन उपलब्ध करा सकता है। सनातन मान्यता में मंदिर केवल श्रृंगारित स्थान भर नहीं है, किसी समुदाय के लिए मंदिर अधिकतर सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, शैक्षिक और कई बार तो आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र रहे हैं। ऐसे में मंदिर का वास्तु इस तरह का बनाया जाता था कि यह नकारात्मरक ऊर्जा खत्म् कर सकारात्मक माहौल बनाए रखे।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण से हर जातक की प्रकृति विशिष्ट् होती है। ऐसे में गुणपूजक सनातन मान्यता में देवों की स्थापना भी प्रकृति के अनुसार की गई है। वैदिक देवताओं की बात करें तो हमें 33 कोटि देवता मिलते हैं। इन 33 कोटि में 12 आदित्य, 11 रुद्र, 8 वसु, प्रजापति और इंद्र शामिल हैं। कालांतर में जब प्रकृति के अनुरूप गुणों को लिए देवताओं का अवतरण हुआ तो हर देवता ने अपनी प्रकृति के अनुसार वैदिक देवताओं के गुणों को कम या अधिक मात्रा में अपना लिया।
उदाहरण के तौर पर वेदों की सभी पालनकर्ता ऋचाएं विष्णु को समर्पित कर दी गई, सभी उत्पवन्न करने वाली ऋचाओं पर ब्रह्मा का अधिकार है और सभी भय उत्पन्न करने वाली रुद्र ऋचाएं शिव के अधीन आ गई। ऐसे में हमें वर्तमान दौर के सर्वाधिक शक्तिशाली त्रिदेव मिले। ये तीनों ही देव भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति देने वाले हैं। इसके अलावा भय उत्पन्न करने वाले रुद्र भैरव हुए, मंगल की स्वामीभक्ति गुणों को लिए हनुमान हुए, सांसारिक साधनों के लिए भग को धारण करने वाली भगवती दुर्गा हुई और दुर्गा के गुणों के अनुरूप विभिन्न देवियों की स्थापना हुई। बुद्धि, चातुर्य, रिद्धी, सिद्धी, पठन-पाठन और लेखन के साथ विध्नों का हरण करने वाले गणेश हुए। जिस जातक की जैसी प्रकृति होगी वह जातक उसी देव की आराधना करेगा।
राशि के आधार पर जातकों को मोटे तौर से बारह भागों में बांटा गया है। मेष और वृश्चिक राशि का अधिपति मंगल है, इन जातकों को हनुमान की आराधना सदैव लाभदायक सिद्ध होगी। वृष आौर तुला राशि का अधिपति शुक्र है। देवी की उपासना करने से जातक का शुक्र मजबूत होता है। मिथुन और कन्या राशि का अधिपति बुध है, इन जातकों को भगवान गणेश की आराधना करनी चाहिए। कर्क राशि का अधिपति चंद्रमा है, चंद्र का अधिकार शिव के पास है। सिंह राशि का अधिपति सूर्य है, इन जातकों को सूर्य अथवा गायत्री उपासना से लाभ होगा। धनु और मीन राशि का अधिपति गुरू है, इन्हें विष्णु की आराधना करनी चाहिए। मकर और कुंभ राशि का अधिपति सूर्य पुत्र शनि है, इन्हें शनि की आराधना करने का लाभ मिलेगा।
अगर गहराई से देखें तो किसी जातक की प्रकृति केवल राशि से ही नहीं देखी जाती, इसके लिए जातक की कुण्डली का लग्नक, पंचम, नवम, चंद्र राशि और कारक ग्रह की स्थितियों को भी देखना होता है। इससे तय होता है कि जातक की झुकाव मूल रूप से किस ओर है। इसके साथ ही पाराशरीय विंशोतरी पद्धति से यह भी पता किया जाता है कि वर्तमान में जातक की कौनसी दशा चल रही है। उस दशा के अनुरूप भी देवता का चुनाव और उपासना का प्रावधान है।
उदाहरण के तौर पर शनि की दशा अथवा साढ़े साती के दौर में जातक को शनि मंदिर जातक छाया दान करने और तिल का तेल चढ़ाने की सलाह दी जाती है। इसी प्रकार विभिन्नन दशाओं में उपचारों का क्रम भी बदलता चला जाता है। इसी कारण भारतीय जनमानस में यह बात बहुत गूढ़ अर्थ लिए है कि जैसे साधक, वैसे ही देव।