फलित ज्योतिष में लग्न को जातक की आत्मा अथवा आत्म तत्व कहा गया है। जातक की मूल प्रकृति इसी लग्न से निर्धारित होती है। आम बोलचाल में भाषा में जो कहा जाता है कि मिट्टी का रंग कभी नहीं बदलता, वह मिट्टी का रंग यही लग्न बताता है। लग्न से स्वयं जातक को, उसके रंग रूप को, उसकी कद काठी को, उसकी क्षमताओं को, स्वभाव को और तेज को पहचाना जाता है। वास्तव में लग्न क्या है? What is lagna in astrology
गोचर से जुड़े फलादेश होने के कारण लगभग सभी प्रचार माध्यमों में राशि को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है। राशि है भी महत्वपूर्ण। परन्तु परंपरागत ज्योतिष में ज्योतिषी राशि से भी पहले जातक का लग्न देखकर निर्धारण करता है कि जातक किस श्रेणी का है। जब किसी जातक को बताया जाता है कि जातक की लग्न राशि अमुक है और चंद्र राशि अमुक तो वह उहापोह में पड़ जाता है कि राशि और लग्न में क्या अंतर है। इस लेख में हम लग्न के बारे में विस्तार से बात करेंगे।
जब हम आकाश की ओर देखते हैं तो हमें 360 डिग्री तक फैला आकाश एक समान दिखाई देता है। ऐसे में हमें किसी न किसी बिंदू को स्थिर करना होता है, जहां से शेष सभी राशियों, भावों और ग्रहों का निर्धारण किया जा सके। इसके लिए अधिकांश शास्त्रों का मत है कि जातक के पैदा होते समय, उस स्थान पर पूर्व दिशा में जो राशि उदय हो रही हो, उसे ही लग्न माना जाए। अगर कोई जातक दिल्ली में जनवरी की शुरूआत में सूर्योदय के समय पैदा हो रहा है, तो उस जातक का धनु लग्न होगा। यह कैसे पता चला कि धनु लग्न होगा, आइए जानते हैं…
सूर्य भगवान एक वर्ष में बारह राशियों में भ्रमण करते हैं। लगभग अप्रैल के मध्य से मई के मध्य तक वह मेष राशि में भ्रमण करते हैं। इसी प्रकार लगभग तीस दिन में राशि बदलते हुए पुन: मार्च से अप्रैल के बीच मीन राशि तक पहुंचते हैं। इसी प्रकार दिसम्बर के मध्य से जनवरी के मध्य तक धनु राशि में रहते हैं और धनु राशि को छोड़कर मकर में आते हैं, तब मकर संक्राति होती है।
इस तरह हमें पता चल गया कि सूर्य देव जनवरी की शुरूआत में धनु राशि में मिलेंगे। दूसरा तथ्य है कि सूर्योदय पूर्व दिशा में होता है। ऐसे में जो जातक जनवरी की शुरूआत में सूर्योदय के समय पैदा होगा, वह धनु लग्न का होगा और उस जातक के लग्न में सूर्य होगा।
लग्न कब बदलता है?
प्रत्येक दो घंटे में लग्न बदलता है। एक दिन में यानी एक अरोरात्र यानी एक दिन और एक रात में जब पृथ्वी अपने अक्ष पर घूर्णन पूरा करती है, उतने समय में सभी राशियां एक एक बार पूर्व दिशा में उदय होती हैं। कुल चौबीस घंटे में 12 लग्न बदलते हैं, यानी एक लग्न दो घंटे चलता है।
अब एक घड़ी की कल्पना कीजिए, जिसमें एक के बजाय दो घंटे में सुई कांटे से कांटे पर पहुंचती है। सूर्योदय के पहले दो घंटे तक एक ही लग्न रहेगा, उसके बाद अगला लग्न आ जाएगा। इन लग्नों की पहचान लग्न में उदय होने वाली राशि से की जाती है। चूंकि राशियां नक्षत्रों से मिलकर बनी है, इसलिए ये आसमान में अपेक्षाकृत स्थिर रहती हैं। यही कारण है कि पृथ्वी की घूर्णन गति से हमें लग्न बदलते हुए मिलते हैं।
जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि जनवरी के प्रथम सप्ताह में सूर्योदय के समय पैदा हुए जातक का धनु लग्न होगा, अब सूर्योदय के दो घंटे बीत जाने के बाद पैदा होने वाले जातक का लग्न बदल जाएगा, और वह जातक मकर लग्न का हो जाएगा, उसके दो घंटे बाद कुंभ और इसी प्रकार अगले दिन सूर्योदय से ठीक पहले वृश्चिक लग्न का जातक पैदा होगा और पुन: सूर्योदय आने पर धनु लग्न आ जाएगा। इस प्रकार लग्न का निर्धारण किया जाता है।
चूंकि हमें आकाश का निर्धारण करना है और इसके लिए पूर्व में उदय होने वाली राशि को ही लग्न मान लिया गया है, लेकिन कुछ ज्योतिष पद्धतियां ऐसी भी रही हैं, जिन्होंने यह प्रयास किया कि जब सूर्य ठीक दिन के मध्य हो, तब उसे लग्न माना जाए। ऐसी पद्धतियां बहुत अधिक सफल नहीं हुई और फलादेश के मामले में भी सटीक साबित नहीं हुई। वर्तमान में दिन में किसी भी समय पैदा हो रहे जातक का लग्न वही माना जाता है, जो राशि जातक के जन्म लेते समय पूर्व में उदित हो रही हो।
फलित ज्योतिष में लग्न की भूमिका
लग्न का निर्धारण होने के साथ ही प्रथम भाव और शेष भावों का निर्धारण हो जाता है। लग्न जितने डिग्री का हो, उसी के अनुरूप शेष सभी भावों की डिग्रियों का भी निर्धारण हो जाता है। ग्रहों की स्थिति लग्न के अनुसार ही देखी जाती है। लग्न से दूसरा भाव कुटुंब का होता है, इसका अर्थ है कि लग्न जो जातक है, उसका कुटुंब लग्न के ठीक पास होता है। कुटुंब के पास पड़ोसी होता है, तो तीसरे भाव से पड़ोसी को देखा जाता है। लग्न से तीसरे भाव से छोटे भाइयों और मित्रों को भी देखा जाता है। लग्न से चतुर्थ माता का भाव है। पंचम संतान, छठा रोग, सप्तम पत्नी, अष्टम आयु, नवम भाग्य, दशम कर्म, एकादश लाभ और द्वादश व्यय देखे जाते हैं। ये सभी भाव लग्न के सापेक्ष ही देखे जाते हैं।
लग्न को स्थिर कर देने के साथ ही जातक की जन्मपत्रिका बन जाती है। यह जन्म पत्रिका जातक के पूरे जीवन का विवरण देने में सक्षम होती है। व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह एक प्रकार का खगोल का चित्र है जिसे जातक के जन्म के समय खींच लिया गया है और इसका आरंभिक बिंदू लग्न है।
लग्न से जातक का शरीर, वर्ण, आकृति, गुण, यश, स्थान, सुख, दुख, प्रवास, दुर्बलता अथवा सबलता, रूप, लक्षण और तेज का विचार किया जाता है। लग्न प्रथम भाव होता है, इस कारण नैसर्गिक रूप से इस भाव का कारक सूर्य के पास होता है। लग्न किस प्रकार के परिणाम देगा, इसका निर्धारण मुख्यतया तीन बातों पर होता है।
पहला : लग्न में कौनसा ग्रह विराजमान है। यह लग्न की राशि का शत्रु है अथवा मित्र, लग्न के तेज को बढ़ाने वाला है या कम करने वाला, अगर एक से अधिक ग्रह बैठे हैं, तो वे किस प्रकार का परिणाम दे रहे हैं।
दूसरा : लग्नेश यानी लग्न के अधिपति यानी लग्न में जो राशि है, उस राशि का स्वामी ग्रह किस स्थिति में है। क्या वह लग्न को देख रहा है, क्या वह लग्न से षडाष्टक योग बना रहा है, क्या वह उच्च अथवा नीच राशि में है, क्या वह दूसरे ग्रहों के साथ युति या दृष्टि संबंध बना रहा है।
तीसरा : लग्न पर किन ग्रहों की दृष्टि है। अगर अनुकूल ग्रहों की दृष्टि है तो श्रेष्ठ परिणाम मिलेंगे और प्रतिकूल ग्रहों की दृष्टि है तो प्रतिकूल परिणाम मिलेंगे। सामान्य तौर पर पुरुष कुण्डली में क्रूर ग्रह और स्त्री कुण्डली में सौम्य ग्रह श्रेष्ठ परिणाम देते हैं। लग्न के अधिपति का शत्रु ग्रह यदि लग्न को देखे तो लग्न को सामान्यतया कमजोर करता है।
इस प्रकार लग्न के तेज का निर्धारण किया जाता है। कुण्डली में अनुकूल प्रभाव देने वाले दो प्रकार के भाव होते हैं, केन्द्र तथा त्रिकोण। लग्न, चतुर्थ, सप्तम और दशम भाव को केन्द्र कहा गया है और लग्न, पंचम और नवम भाव को त्रिकोण कहा गया है। दूसरे शब्दों में जन्मपत्रिका में एकमात्र लग्न ही ऐसा भाव है जो केन्द्र और त्रिकोण दोनों की भूमिका का निर्वहन करता है।
उपरोक्त कारकों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने पर हम तय कर सकते हैं कि किसी जातक का लग्न ताकतवर है अथवा कमजोर। अगर लग्न से संबंधित सुयोग बनते हैं तो जातक की कुण्डली भी प्रथम श्रेणी की कुण्डली बनती है और नवम अथवा दशम भाव से सुयोग बनाए तो प्रथम श्रेणी का राजयोग भी बनता है। अगर किसी जातक की कुण्डली में लग्न, लग्नेश और लग्नेश के साथ बने नवम और दशम भावों के श्रेष्ठ संबंध हो तो रंक के घर पैदा हुआ जातक भी अपनी क्षमताओं से निश्चित तौर पर राजाओं जैसा जीवन जीता है।