अपनी बात शुरू करने से पहले मूर्ति और प्रतिमा में अंतर करना होगा। प्रतिमा हम उसे कहेंगे जो स्मृति के अनुसार हमें जिस किसी संरचना का आभास अथवा अनुमान होता है, उसे प्रकट करने के लिए प्रतिमा बनाई जाती है। प्रतिमा की प्रकृति अस्थाई होती है। प्रतिमा में कभी पूर्णता नहीं होती। जैसे किसी महापुरुष की प्रतिमा बनाई जाए, किसी प्राकृतिक दृश्य को उकेरा जाए, इन प्रतिमाओं में स्मृति के आधार पर जितने अवयव होते हैं सभी शामिल करने का प्रयास किया जाता है, इसके बावजूद जो सृजन उभरकर आता है, उसमें कभी पूर्णता नहीं आ पाती है, कालांतर में प्रतिमाएं अपना रूप और स्वरूप दोनों बदल सकती हैं, और सामान्य तौर पर बदलती ही हैं।
वहीं मूर्ति अपने आप में एक पूर्णता लिए हुए रूपक होता है। देवताओं का विग्रह केवल सौंदर्य बोध का परिचायक नहीं होता है, उस विग्रह में संबंधित देवता के सभी गुणों का समावेश करने का प्रयास किया जाता है। जिस मूर्ति का निर्माण किया जाता है, वह मूर्ति अपने आप में उस भाव से संबंधित सभी गुणों को लिए हुए होती है। हमें युद्ध में शंखनाद करते कृष्ण का विग्रह भी मिलता है, बाल गोपाल का भी और रास रचाते कृष्ण का भी। हमें ठुमक चलत रामचंद्र का विग्रह भी मिलता है, धनुष तोड़ते युवा राम का, रामेश्वरम् की स्थापना करते सौम्य राम और रावण का वध करते उग्र राम का विग्रह भी मिलता है। हमें नृत्य करते गणेश, माता पार्वती की गोद में बैठे और मूषक पर सवार गणेश के विग्रह भी मिलते हैं। हमें धन देने वाली लक्ष्मी और उग्र रूप में काली के विग्रह भी मिलते हैं। हर मूर्ति का अपना लक्ष्य और अपना संधान है, जिस जातक की जैसी प्रकृति होगी, वह उसी देव की आराधना करने लगेगा।
“जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन जैसी”
रामचरितमानस में तुलसीदासजी ने स्पष्ट कर दिया कि जैसी भक्त की प्रकृति होगी, वैसे ही उसके देव होंगे। देखनें में यह बात बहुत सहज लगती है, लेकिन गौर किया जाए तो ज्योतिषीय दृष्टिकोण से जातक की प्रकृति और उसके देवता की प्रकृति में मेल कराना बहुत टेढ़ा काम होता है।
सालों पहले अवकहड़ा चक्र के जरिए जातक के ईष्ट देवता को बताने का प्रचलन था, लेकिन समय के साथ अवकहड़ा चक्र के देवताओं को लोगों ने मानना बंद कर दिया, ज्योतिष में भी जातक की विशिष्टता के अनुरूप देवताओं का निर्धारण किया जाने लगा है। उपचारीय ज्योतिष में ईष्ट देवता की स्थापना के साथ दशा के अनुरूप देवता की आराधना का प्रावधान है। इससे तात्तकालिक समय में समस्याओं से घिरा जातक किसी विशिष्ट देवता की पूजा अर्चना कर समस्याओं से बहुत हद तक बाहर आ जाता है।
सनातन मान्यता में देवता अपने गुणों के साथ ही उपस्थित होते हैं। चाहे अनगढ़ भैरव हों या शंख चक्र गदा के साथ शेषनाग पर शैय्या करते विष्णु और उनके पांव दबाती लक्ष्मी। हर विग्रह अपने आप में शक्तिशाली रूपक है और ग्रहों की विशिष्ट अवस्था, ग्रहों की युतियों, ग्रहों की कुण्डली में स्थिति, ग्रहों की दशाओं के लिए अनुकूल परिणाम देने वाले हैं। ज्योतिषी को इन्हीं सभी बातों पर गौर करते हुए जातक को किसी विशिष्ट समय में विशिष्ट विग्रह की आराधना करने के लिए निर्देश देने होते हैं।
लोकदेवता भैरव
किसी भी सभ्यता या कहें किसी भी स्थान पर आबादी की बसावट के शुरूआती दौर में जब गांव के लोगों के पास केवल जमीनें और पशु ही होते हैं तो उनके पास देवों के रूप में भैवर ही विद्यमान होते हैं। ये भैरव या तो धरती से स्वत: उत्पन्न हुए विशिष्ट आकृति के पत्थर के रूप में होते हैं अथवा किसी तांत्रिक द्वारा मानव शव अथवा मानव कपाल पर साधना से स्थापित किए गए होते हैं।
लोकदेव भैरव वेदों में बताए गए रूद्र में से ही एक हैं। रौरव की भयंकर ध्वनि के साथ के साथ आसमान से धरती पर आए भैरव अथवा तंत्र की भीषण क्रियाओं से उपजे भैरव में रुद्र का तेज होता है। इसी तेज से भैरव प्राकृतिक प्रकोपों से फसलों की रक्षा तथा चोरों से पशुओं की रक्षा करते हैं। वेदों के 11 रुद्र प्रकारों को शिव के रूद्र माना गया है, लेकिन प्राचीन काल में यही शिव भैरव के रूप में ही पशुओं की रक्षा करते थे। समय बीतने के साथ शिव को वेदों में स्थान मिल गया और अनपढ़ किसानों के पास अनगढ़ भैरव रह गए। किसी ठेठ देहाती समाज के भैरव और शंकराचार्य द्वारा स्थापित शिव में यही समानता है कि दोनों रूद्र हैं और अपनी शक्तियों से मानव की रक्षा करते हैं।
देवी पिण्ड
आदिगुरू शंकराचार्य ने सौंदर्यलहरी गाते हुए कहा कि शक्ति के बिना शिव भी शव के समान है। अद्वैत वेदांत का प्रतिपादन करने वाले आदिगुरू ने आखिर शक्ति की महिमा को समझा। यही शक्ति मानव जीवन के हर सांसारिक कार्य के लिए जरूरी है। कालांतर में शक्ति के अनेक स्वरूप हुए, लेकिन आदि शक्ति शुरू से ही अनगढ़ रही है। जिस प्रकार शिव अपने आरंभिक काल में भैरव के रूप में अनगढ़ रहे हैं, ठीक उसी प्रकार। वर्तमान में नवरात्र में नौ देवियों की आराधना होती है, चंद्रघंटा से लेकर दुर्गा तक की देवियों के स्वरूप को विस्तार से व्याख्यायित किया गया है, लेकिन आदि देवी के लिए किसी स्वरूप की नहीं, बल्कि शक्ति के प्रकार की आवश्यकता होती है।
देवी पुराण में माता सती के दक्ष प्रजापति के कुण्ड में होम हो जाने के बाद शिव द्वारा सती के जले हुए शव को लेकर हाहाकार करते हुए पूरी सृष्टि में विलाप का रूपक बताया गया है। भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से देवी सती के शरीर के विभिन्न भाग करते हैं जो भारत भूमि पर अलग अलग स्थानों पर गिरते हैं। जिन स्थानों पर सती के अंग गिरते हैं, वही देवी के शक्ति स्थल बन जाते हैं। कालांतर में हम देखते हैं देश में ऐसे 52 शक्तिपीठ बने हुए हैं। कामाख्या तो तांत्रिकों को बड़ा गढ़ बनकर उभरा है।
आदि शक्ति के बहुत अधिक सधे हुए रूपों ने या तो पुराणों में स्थान पाया है अथवा वर्तमन के शक्तिपीठ के रूप में, हालांकि इन शक्तिपीठों में भी देवी किसी इंसानी रूप अथवा किसी रूपक के रूप में न होकर मात्र पिण्ड के रूप में है और अपनी ताकत से बहुत शक्तिशाली प्रभाव दे रही हैं। इसी तरह ग्राम सभ्यता में आज भी लोकदेव भैरव के पास देवी की मूर्तियां अपने अनगढ़ रूप में ही उसी आदि शक्ति का रूप प्रदर्शित करती है।
…क्रमश: