ज्योतिष के अध्ययनकाल में हमें तीन जन्मपत्रिकाएं सबसे महत्वपूर्ण मिलती हैं। कालपुरुष की कुण्डली, भगवान श्रीकृष्ण की कुण्डली और भगवान श्रीरामचंद्र की कुण्डली। इन तीन जन्मपत्रिकाओं का विश्लेषण ज्योतिष के योगायोगों के साथ के साथ किया जाए, तो सीखना बहुत आसान हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की कुण्डली का विश्लेषण पूर्व में दे चुका हूं। इस लेख में हम बात करेंगे भगवान श्रीरामचंद्र की जन्मपत्रिका की।
श्रीहरि के अवतार होने के बावजूद रघुपति ने मृत्यलोक की लीला को वैसे ही जीया जैसे एक आम इंसान को जीना चाहिए। ग्रहों का प्रभाव उनके ऊपर भी वैसा ही दिखाई देता है, जैसा किसी आम जातक पर दिखाई देना चाहिए। हालांकि श्रीरामचंद्रजी की जन्मपत्रिका में कुछ भेद भी बताए जाते हैं। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि उनकी पत्रिका में सभी ग्रह उच्च के थे। आज की लौकिक गणित में यह इसलिए भी संभव नहीं है, क्योंकि उच्च का सूर्य मेष राशि में होता है और उच्च का बुध कन्या राशि में होता है। सूर्य और बुध के बीच दो राशि से अधिक का भेद नहीं हो सकता। ऐसे में बुध की स्थिति कुछ संशय में रहती है।
रामायण के बालकाण्ड में वाल्मीकिजी ने जो वर्णन किया है, उसके अनुसार अश्वमेघ यज्ञ समाप्त होने के एक वर्ष पश्चात चैत्र मास की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में जन्म हुआ है। जन्मपत्रिका में पांच गह उच्च के बताए गए हैं। इसमें बुध शमिल नहीं है। ज्योतिषी देवकीनन्दन सिंह अपनी पुस्तक ज्योतिष रत्नाकर में भगवान श्रीरामचंद्र की जो पत्रिका देते हैं, उसमें वे बताते हैं कि कालांतर में विद्वानों ने बुध को एकादश भाव में वृषभ राशि का तथा राहु को धनु तथा केतु को मिथुन राशि का मान लिया गया। पुराणों के अनुसार भगवान श्रीराम ने ग्यारह हजार वर्षों तक शासन किया। पांच उच्च के ग्रह सम्राट बनाने और अपरिमित आयु के स्वत: लक्षण हैं। यहां बुध की भ्रामक स्थिति का एक और कारण यह हो सकता है कि एक ही जन्मपत्रिका में सभी पंच महापुरुष योग बनने के लिए जिस ग्रह पोजीशन की जरूरत होगी, ज्योतिष रत्नाकर के अनुसार वह समय अभी से करीब सवा करोड़ साल पहले का समय है।
जन्मपत्रिका की व्याख्या
कर्क लग्न : यह लग्न अपने आप में राजयोग कारक लग्न है। सभी लग्नों की तुलना में सर्वाधिक राजयोग कर्क लग्न में बनते हैं। इसलिए इसे राज लग्न कहा जाता है। कर्क लग्न का जातक हो और लग्न में शुभ चंद्रमा हो तो जातक निर्मल स्वभाव का होता है। संवेदनशील होता है। दूसरों की सहायता करने को सदैव तत्पर रहता है। दूसरों की पीड़ा दूर करने के प्रयास में खुद को नुकसान भी पहुंचा लेता है। लग्नेश लग्न में होने से जातक अपने कुल में प्रमुख होता है और कुल शिरोमणी होता है।
लग्न में गुरु : षष्ठेश लग्न में उच्च का होकर बैठा है। छठा भाव रोग, ऋण अथवा शत्रु का होता है। अगर छठे भाव का अधिपति बहुत अधिक बलशाली हो तो जातक के शत्रु भी बहुत अधिक बलशाली होते हैं। यहां खुद छठे भाव में राहु विराजमान होने से शत्रु नीच प्रवृत्ति का होता है। यहां दोनों बातें देखने में आती हैं कि प्रभु श्रीराम का शत्रु रावण न केवल बहुत ही अधिक बलशाली है बल्कि नीच प्रवृत्ति का भी है। गुरु को जीव भी कहा गया है। गुरु का वजन अधिक होता है। ऐसे में ज्योतिष में कहा गया है “जीवो भाव कारको नाशाय”। यानी गुरु जिस भाव में बैठता है, उस भाव को नुकसान करता है। लग्न आत्मा है, स्व है, अभिमान है, अहंकार है। लग्न में गुरु होने पर जातक पर बहुत से मिथ्या आरोप लगते हैं। जातक की साख को बिना कारण नुकसान पहुंचता है। चाहे युवराज बनके अधिकार छोड़ना पड़े, चाहे राजकुमार बनकर वनवासी के भेष में घूमना पड़े, चाहे पृथ्वी के सबसे बड़े साम्राज्य का राजकुमार होते हुए जंगल में कुटिया बनाकर रहना पड़े, चाहे छद्म नीति वचन बोलने वाले बाली के कड़वे वचन सुनने पड़ें या स्वर्ण मृग का पीछा करते हुए अपनी पत्नी को खोना पड़े। हर कोण से पुन: पुन: प्रभु को नीचा देखना पड़ता है।
चतुर्थ भाव में शनि : चतुर्थ भाव को परिवार, सुख और माता का स्थान बताया गया है। शनि सेपरेटिंग प्लेनेट है, यानी जिस स्थान पर बैठता है, उस स्थान से दूर ले जाता है। तुला राशि में उच्च के शनि के कारण चालीस वर्ष की अवस्था तक श्रीराम न तो माता पिता का सुख ले पाए और न ही घर में रह पाए। पहले शिक्षा के लिए गुरु के पास गए और लौटने के कुछ ही दिनों में विश्वामित्र उन्हें ले गए और बाद में वनवास के लिए निकल गए। शनि और सूर्य की युति हो अथवा शनि और सूर्य एक दूसरे को पूर्ण दृष्टि से देख रहे हों तो छत्र भंग योग भी बनता है। ऐसे योग में पिता और पुत्र एक ही छत के नीचे नहीं रह पाते हैं। अगर दोनों साथ रहें तो दोनों में से एक या दोनों डैमेज होते हैं। जब तक रघुपति गुरुकुल में या विश्वामित्र के साथ रहे, तब तक राजा दशरथ और प्रभु श्रीराम दोनों अच्छी प्रगति करते रहे। परन्तु विवाह के बाद पुन: घर लौटना, पिता और पुत्र दोनों के लिए भारी रहा। अब छत्र भंग में एक और विशिष्टता दिखाई देती है। भले ही पिता पुत्र के साथ रहने का योग न हो, लेकिन दोनों के बीच प्रेम बहुत अधिक होता है। पिता के वचन को अटल मान श्रीराम वनवास को निकल गए और पुत्र के वियोग की पीड़ा इतनी हुई कि दशरथ स्वर्ग सिधार गए।
सप्तम भाव में मंगल: सप्तम भाव कालपुरुष की कुण्डली में शुक्र का स्थान है। यहां पर मंगल शत्रुक्षेत्री होता है और उच्च का मंगल और भी अधिक कड़ा होता है। यहां मंगल की प्रकृति का भी पता चलता है। मंगल अपने शत्रु की राशि में जाकर अधिक प्रबल होता है। मंगल और शनि प्रबल शत्रु हैं, लेकिन मंगल शनि की मकर राशि में ही श्रेष्ठ प्रदर्शन करता है। अब स्थान विपरीत हो गया। यहां माता जानकी के भाव में आकर बैठा मंगल पत्नी से भी वियोग करवा देता है। अपने बल से सीता को स्वयंवर में जीतकर लाए रघुनाथ को पहले जंगल में सीता माता को खोना पड़ा और बाद में उत्तरकांड के अनुसार प्रजा के विरोध के कारण। यही मंगल बहुत शक्तिशाली साझेदार भी देता है। सप्तम भाव को साझेदारी का भाव भी कहा जाता है। सप्तम में उच्च के मंगल वाला जातक जब किसी प्रोजेक्ट में लगता है और उस कार्य में साझेदारों को शामिल करने का प्रयास करता है तो उसे उच्च क्षमता वाले साझेदार मिलते हैं। प्रभु श्रीराम को सुग्रीव और हनुमानजी जैसे साझेदार मिले।
नवम भाव में शुक्र: मीन राशि का शुक्र उच्च का होकर भाग्य भाव में बैठे तो जातक दिसावर या कहें परदेस में जाकर बेहतरीन कार्य करता है। प्रभु श्रीराम जब भी अपने पैतृक स्थान से दूर गए, तब उन्होंने श्रेष्ठ कार्यों का संपादन किया। पहले विश्वामित्र के साथ गए तब ऋषियों को राक्षसों से बचाया और बाद में वनवास गए तो आयोध्या की सीमा से लेकर लंका तक रामराज्य की स्थापना की। नवम भाव में सौम्य ग्रह उच्च का हो तो जातक अतिशय भाग्यशाली होता है और नवम भाव का अधिपति लग्न में उच्च का होकर बैठे तो जातक जहां भी रहे, उसे मनोनुकूल संसाधन मिल जाते हैं। यह शुक्र एकादश भाव का अधिपति होकर खुद से एकादश भाव में विराजमान है। एकादश भाव को जनता से संवाद का तथा इच्छा पूरी होने का भाव कहा गया है। जब एकादश भाव का अधिपति खुद से एकादश भाव में हो तो प्रभु श्रीराम के आगमन से पहले उनका इंतजार शुरू हो जाता और जहां पहुंचते वहीं पर मांगलिक वातावरण बन जाता।
दशम भाव में सूर्य : दशम भाव को कर्म भाव भी कहा जाता है। इस भाव में सूर्य बैठे तो जातक को प्रशासनिक क्षमताएं देता है। यहीं पर उच्च का सूर्य बैठे तो पिता से दूर करता है, लेकिन ऐसा जातक प्रशासन से शीर्ष पर होता है। बहुत बड़े समूह का नेतृत्व करने वाला होता है। प्रभु की कुण्डली में उच्च का सूर्य ही है कि वनवास के समय भी रावण की सेना से लड़ने के लिए वानर सेना बना लेते हैं। बाद में जब आयोध्या में सिंहासन पर बैठते हैं तो 11 हजार साल तक रामराज्य की स्थापना कर देते हैं। यही कारण है कि प्रभु के राज के दौरान कोई दुखी और पीडि़त नहीं होता था और सभी को न्याय मिलता था। ऐसे नेतृत्व की बात बिना किसी किंतु परन्तु के मानी जाती है।
एकादश भाव का बुध : यह बुध न तो उच्च का है और न ही बहुत ही अधिक प्रभावी है। कर्क लग्न में बुध द्वादश भाव का अधिपति होकर एकादश भाव में विराजमान है, बस यही एक अनुकूलता दिखाई देती है। द्वादश भाव क्षरण का भाव और क्षरण के भाव का अधिपति खुद से क्षरण के भाव में पहुंचा हुआ है, इससे क्षरण की गति धीमी हो जाती है।
द्वादश भाव का केतु : इस केतु को मोक्षदायक कहा गया है। अब श्रीहरि के अवतार को लीला के लिए मृत्युलोक में प्रवेश करना था और लीला पूरी होने पर पूरी तरह मुक्त हो जाना था। संभवत: इसी कारण केतु को द्वादश का मान लिया गया।
कठिन केन्द्र : कुण्डली के सबसे अनुकूल भाव केन्द्र और त्रिकोण माने गए हैं। इनमें भी केन्द्र अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के परिणाम देते हैं। कर्क लग्न में चारों केन्द्रों में उच्च के ग्रह बैठ सकते हैं। प्रभु श्रीराम की जन्मपत्रिका में वही हुआ, लग्न में उच्च का गुरु बैठा, चतुर्थ में उच्च का शनि बैठा, सप्तम में उच्च का मंगल बैठा और दशम भाव में उच्च का सूर्य बैठा। ज्योतिष में ऐसा माना जाता है कि क्रूर ग्रह केन्द्र में बैठें तो ऐसे जातक का संघर्ष तो कठिन होता है लेकिन जातक को बहुत ऊंचाई पर ले जाते हैं। प्रभु श्रीराम के साथ भी ऐसा ही हुआ।
केन्द्र त्रिकोण संबंध : देवगुरू वृहस्पति सौम्य ग्रह है और चंद्रमा भी सौम्य ग्रह है। लग्न को केन्द्र के साथ त्रिकोण भी कहा गया है। इस लग्न त्रिकोण में लग्नाधिपति और नवम भाव के अधिपति की युति बनती है। गुरु चंद्र की इस युति को गजकेसरी योग कहा जाता है। ऐसे जातक को सभी सुख आसानी मिलते हैं। नरों में श्रेष्ठ होता है। अपने कर्तव्यों का पालन करने वाला होता है। परिवार का पालन करने वाला होता है। गजकेसरी वाले जातक पर दूसरे निर्भर होकर निंश्चिंत हो सकते हैं। यही रघुनाथ का लक्षण भी है।
दशाओं का क्रम : प्रभु श्रीराम का जन्म पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ। कर्क राशि का चंद्रमा और पुनर्वसु नक्षत्र हो तो संकेत मिलता है कि प्रभु का जन्म पुनर्वसु के अंतिम चरण में हुआ। ऐसे में उन्हें जन्म के बाद मात्र चार वर्ष ही वृहस्पति की दशा के मिलते हैं। गुरु के बाद शनि की 19 वर्ष की महादशा शुरू हो जाती है। गुरु के चार और शनि के 19 वर्ष बीत जाने के बाद बुध की महादशा शुरू होने के समय प्रभु श्रीराम 23 वर्ष की आयु के थे। बुध की महादशा 17 साल तक चलती है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम को 27 वर्ष की आयु में 14 वर्ष का वनवास मिला। यानी बुध की दशा में ही प्रभु को वनवास मिला और बुध की दशा समाप्त होने के ठीक बाद यानी 41 वर्ष की आयु में केतु की महादशा के दौरान प्रभु पुन: अवध लौट आए। बुध की महादशा में शनि की अंतरदशा के दौरान श्रीराम ने रावण का वध किया।
प्रभु श्रीराम का जीवनवृत और उनकी जन्मपत्रिका दोनों के मेल से और भी सैकड़ों परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। ज्योतिष सीखने वाले हर विद्यार्थी को जीवन में कई बार प्रभु श्रीराम और भगवान कृष्णचंद्र की जन्मपत्रिकाओं का अध्ययन करना चाहिए।