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भगवान श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली का विश्‍लेषण | Shri Krishna Kundli

Bhagwan Shri Krishna Ki Janam Kundali
Bhagwan Shri Krishna Ki Janam Kundali

भगवान श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली का विश्‍लेषण
Analysis of Horoscope of Lord Krishna

सनातन मान्‍यता में विष्‍णु के दो अवतार ऐसे हुए हैं जिनकी कुण्‍डली भी उपलब्‍ध है। ज्‍योतिष शास्‍त्र में ऐसा माना जाता है कि ज्‍योतिष के विद्यार्थी को अपने अध्‍ययन में गहराई लाने के लिए इन दोनों अवतारों की कुण्‍डलियों का विश्‍लेषण जरूर करना चाहिए। चूंकि दोनों अवतारों की जीवनी और कुण्‍डली उपलब्‍ध है, तो बहुत से भेद इन कुण्‍डलियों से हमें हासिल हो जाते हैं। Analysis of horoscope of Lord Krishna

भगवान श्रीराम की कर्क लग्‍न की कुण्‍डली (Lord Krishna Zodiac Sign) में जहां बुध के अलावा सभी ग्रहों को उच्‍च का बताया गया है वहीं भगवान श्री कृष्‍ण की कुण्‍डली में चंद्र, मंगल, शनि और बुध उच्‍च के हैं और राहु के अलावा शेष ग्रह स्‍वराशि में स्थित हैं। लग्‍न में चंद्रमा के साथ केतू होने के बावजूद भगवान श्रीकृष्‍ण सनातन मान्‍यता के पूर्ण अवतार हुए हैं। इस लेख में हम भगवान श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली का विश्‍लेषण करने का प्रयास करेंगे।

Shri Krishna Kundli

भगवान श्रीकृष्‍ण चंद्र का जन्‍म और कुण्‍डली (Lord Krishna Birth Time and Kundali)

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भगवान श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद महीने की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को महानिशीथ काल में वृष लग्न में हुआ (Lord Krishna Rashi)। उस समय चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में भ्रमण कर रहे थे। रात्रि के ठीक 12 बजे क्षितिज पर वृष लग्न उदय हो रहा था तथा चंद्रमा और केतु लग्न में विराजित थे। चतुर्थ भाव सिंह राशि मे सूर्यदेव, पंचम भाव कन्या राशि में बुध, छठे भाव तुला राशि में शुक्र और शनिदेव, सप्तम भाव वृश्चिक राशि में राहु, भाग्य भाव मकर राशि में मंगल तथा लाभ स्थान मीन राशि में बृहस्पति स्थापित हैं। भगवान श्री कृष्ण की जन्मकुंडली में राहु को छोड़कर सभी ग्रह अपनी स्वयं राशि अथवा उच्च अवस्था में स्थित हैं। यह ग्रहों की गणितीय स्थिति है।

हालांकि श्रीकृष्‍ण की जन्‍म कुण्‍डली (Shri Krishna Janam Kundali) को लेकर कई भेद हैं, लेकिन यह गणितीय स्थिति अब तक सर्वार्थ शुद्ध उपलब्‍ध है। इसके कई प्रमाण हमें मिलते हैं। श्रीमद्भागवत की अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका में दशम स्‍कन्‍ध के तृतीय अध्‍याय की व्‍याख्‍या में पंडित गंगासहाय ने ख्‍माणिक्‍य ज्‍योतिष ग्रंथ के आधार पर लिखा है कि…

“उच्‍चास्‍था: शशिभौमचान्द्रिशनयो लग्‍नं वृषो लाभगो जीव: सिंहतुलालिषु क्रमवशात्‍पूषोशनोराहव:।
नैशीथ: समयोष्‍टमी बुधदिनं ब्रह्मर्क्षमत्र क्षणे श्रीकृष्‍णाभिधमम्‍बुजेक्षणमभूदावि: परं ब्रह्म तत्।।”

सूरदासजी के पद में कुण्‍डली और फलादेश (Shri Krishna Kundli Analysis by Surdas Ji)

वल्‍लभाचार्य के शिष्‍यों की कथाओं के संकलन के रूप में ब्रज भाषा में रचित पुस्‍तक चौरासी वैष्‍णवों की वार्ता में सूरदासजी के एक पद्य को शामिल किया गया है। इस पद में सूरदासजी ने भगवान श्रीकृष्‍ण के जीवनवृत को उनकी जन्‍मकुण्‍डली के आधार पर बहुत खूबसूरती से उकेरा है। यह इस प्रकार है…

 नन्‍दजू मेरे मन आनन्‍द भयो, मैं सुनि मथुराते आयो,
लगन सोधि ज्‍योतिष को गिनी करि, चाहत तुम्‍हहि सुनायो।
सम्‍बत्‍सर ईश्‍वर को भादों, नाम जु कृष्‍ण धरयो है,
रोहिणी, बुध, आठै अंधियारी, हर्षन जो परयो है।
वृष है लग्‍न, उच्‍च के उडुपति, तनको अति सुखकारी,
दल चतुरंग चलै संग इनके, व्हैहैं रसिकबिहारी।
चौथी रासि सिंह के दिनमनि, महिमण्‍डल को जीतैं,
करिहैं नास कंस मातुल को, निहचै कछु दिन बीतै।
पंचम बुध कन्‍या के सोभित, पुत्र बढैंगे सोई,
छठएं सुक्र तुला के सुनिजुत, सत्रु बचै नहिं कोई।
नीच-ऊंच जुवती बहुत भोगैं, सप्‍तम राहु परयो है,
केतू मुरति में श्‍याम बरन, चोरी में चित्त धरयो है।
भाग्‍य भवन में मकर महीसुत, अति ऐश्‍वर्य बढैगो,
द्विज, गुरुजन को भक्‍त होइकै, कामिनी चित्त हरैगो।
नवनिधि जाके नाभि बसत है, मीन बृहस्‍पति केरी,
पृथ्‍वी भार उतारे निहचै, यह मानो तुम मेरी।
तब ही नन्‍द महर आनन्‍दे, गर्ग पूजि पहरायो,
असन, बसन, गज बाजि, धेनु, धन, भूरि भण्‍डार लुटायो।
बंदीजन द्वारै जस गावै, जो जांच्‍यो सो पायो,
ब्रज में कृष्‍ण जन्‍म को उत्‍सव, सूर बिमल जस गायो।

Shri Krishna Kundali Birth Date and Time
Shri Krishna Kundali Birth Date and Time

इसमें सूरदासजी ने न केवल ज्‍योतिषीय गणनाएं स्‍पष्‍ट कर दी हैं बल्कि उनके फलादेश भी साथ ही साथ देकर भगवान श्रीकृष्‍ण का जीवनवृत्‍त सजीव कर दिया है। ईश्‍वर संवत्‍सर के भाद्रपद मास के कृष्‍ण पक्ष की अष्‍टमी को, रोहिणी नक्षत्र में नन्‍द बाबा के घर भगवान कृष्‍ण का अवतरण हो रहा है। इस समय हर्ष योग बन रहा है। 

वृषभ लग्‍न है, लग्‍न में उच्‍च का चंद्रमा मौजूद है, चौथे भाव में सिंह राशि का सूर्य, पंचम में कन्‍या का बुध, छठे भाव में तुला का शुक्र शनि के साथ, सप्‍तम में राहु, लग्‍न में चंद्रमा के साथ केतू, भाग्‍य भाव में उच्‍च का मंगल, मीन का बृहस्‍पति है। इस पद में बस यही स्‍पष्‍ट नहीं हो रहा है कि रोहिणी नक्षत्र के कौनसे चरण में श्रीकृष्‍ण अवतरित हो रहे हैं। अन्‍यथा दशाक्रम भी बहुत अधिक सटीक उभरकर आ जाता। मोटे तौर पर हम मान सकते हैं कि भगवान कृष्‍ण की बाल्‍यावस्‍था चंद्रमा की दशा में, किशोरावस्‍था मंगल की महादशा में और युवावस्‍था राहु की महादशा में बीती होगी। इसके बाद गुरु, शनि और बुध की दशाओं के दौरान भगवान श्रीकृष्‍ण ने महाभारत के सूत्रधार की भूमिका निभाई होगी।

अब कुछ फलादेश ऐसे हैं जिनसे हम किसी भी सामान्‍य जातक की कुण्‍डली में लागू कर सकते हैं और आश्‍चर्यजनक परिणाम हासिल कर सकते हैं। इनमें सबसे पहला है चतुर्थ भाव में स्‍वराशि का सूर्य मातुल का नाश करता है। भगवान श्रीकृष्‍ण के छठे भाव में तुला राशि है। यह भाव मामा का भी है। ऐसे में तुला लग्‍न से मामा को देखा जाएगा। भावात भाव सिद्धांत से तुला के ग्‍यारहवें यानी सिंह राशि का अधिपति सूर्य मामा के लिए बाधकस्‍थानाधिपति की भूमिका निभाएगा। करीब 11 साल की उम्र में श्रीकृष्‍ण कंस का वध करते हैं। दशाओं का क्रम देखा जाए तो पहले करीब दस साल चंद्रमा के और उसके बाद छठे साल में मंगल की महादशा में सूर्य का अंतर आता है। यही अवधि होती है जब जातक के मामा का नाश होगा। यही सूरदासजी भी इंगित कर रहे हैं कि चतुर्थ भाव में स्‍वराशि का सूर्य मामा का नाश करवा रहा है।

दूसरा बड़ा संकेत पंचम भाव में उच्‍च के बुध (Mercury in Fifth House) की स्थिति है। सामान्‍यतया ज्‍योतिष में पंचम भाव को संतान का घर माना गया है और बुध को संतान का ग्रह। यहां उच्‍च का बुध होने के कारण श्रीकृष्‍ण को बहुत संतान होगी, ऐसा फल कहा गया है। ऐसे में यह फलादेश मान्‍य होगा कि पंचम भाव में उच्‍च का बुध अधिक संतान देता है।

छठे भाव के बारे में सूरदासजी कहते हैं यहां स्‍वराशि का शुक्र उच्‍च के शनि के साथ विराजमान है, ऐसे जातक के सभी शत्रुओं का नाश होता है। ज्‍योतिष के अनुसार शनि के पक्‍के घरों में छठा, आठवां और बारहवां माना गया है। छठे भाव का शनि (Saturn in Sixth House) बहुत ही शक्तिशाली और प्रबल शत्रु देता है, लेकिन यहां पर शुक्र स्थित होने से शत्रुओं का ह्रास होता है। कुण्‍डली के अनुसार जातक के बलशाली शत्रु होंगे और अंतत: वे समाप्‍त हो जाएंगे। श्रीकृष्‍ण अपने लीला के अधिकांश हिस्‍से में शत्रुओं से लगातार घिरे रहते हैं। चाहे जन्‍म से लेकर किशोरावस्‍था तक यदुवंशियों के सम्राट की शत्रुता हो या बाद में महाभारत में पाण्‍डुपुत्रों के सहायक होने के कारण पाण्‍डुओं के सभी शत्रुओं से शत्रुता हो। एक के बाद एक प्रबल शत्रु उभरता रहा और श्रीकृष्‍ण उनका शमन करते गए।

कोई भक्‍त अपने ईष्‍ट के केवल गुणों का ही वर्णन कर सकता है, लेकिन वही भक्‍त जब ज्‍योतिषीय विश्‍लेषण के स्‍तर पर आता है तो ईष्‍ट के साथ भी कोई नरमी बरतता दिखाई नहीं देता है। सूरदासजी अपने पद में कह रहे हैं कि सप्‍तम भाव में राहु (Rahu in Seventh House) होने के कारण गोपाल का ऊंच नीच हर प्रकार की स्त्रियों से संबंध रहा। ज्‍योतिष के अनुसार सप्‍तम भाव में पाप ग्रह बैठा होने पर जातक के एक से अधिक संबंध बन सकते हैं, लेकिन यहां राहु होने के कारण गोपाल से संबंध करने वाली स्त्रियों का स्‍तर भी अनिश्चित ही था, कोई ऊंचे कुल की थी तो कोई नीचे कुल की, योगीराज ने सभी से एक समान प्रेम किया।

आगे सूरदासजी एक महत्‍वपूर्ण सूत्र छोड़ते हैं, उनके अनुसार लग्‍न में बैठा केतू (Ketu in First House) श्रीकृष्‍ण का ध्‍यान चौर्य कर्म में लगाए रखता है। अब चितचोर के लिए यह बात तो सही है, लेकिन मेरा निजी अनुभव है कि लग्‍न में केतू होने पर जातक का रंग बहुत ही गोरा चिट्टा होता है। सामान्‍य तौर पर केतू लग्‍न के साथ जातक काला नहीं होता है। केतू कुजवत होता है, यानी मंगल का ही एक रूप होता है। लग्‍न का मंगल अथवा केतू रंग को काला किसी भी सूरत में नहीं करते हैं। यहां पद को बार बार पढ़ने पर पता चलता है कि सूरदासजी स्‍पष्‍ट कर रहे हैं कि केतू लग्‍न और रंग काला का संयोग बनने पर चितचोर का मन चोरी में लगा रहता है। ऐसे में हम यह धारणा बना सकते हैं कि अगर किसी जातक की कुण्‍डली में लग्‍न में केतू बैठा हो और जातक का रंग काला हो, तो जातक चौर्य कर्म में निपुण हो सकता है। हालांकि ऐसी स्थिति लाखों या करोड़ों में ही एकाध बार बनेगी, परंतु जहां बनेगी, वहां स्‍पष्‍ट होगा कि लग्‍न का केतू लिए काले रंग का जातक चोर हो सकता है।

सामान्‍य तौर पर माना जाता है कि क्रूर ग्रह केन्‍द्र में और सौम्‍य ग्रह त्रिकोण में शुभ होते हैं, लेकिन यहां सूरदासजी ज्‍योतिष की इस मान्‍यता का खण्‍डन करते हुए बता रहे हैं कि भाग्‍य भाव यानी नवम भाव में बैठा उच्‍च का मंगल (Mars in Ninth House) श्रीकृष्‍ण को नौ निधि यानी हर प्रकार का सुख उपलब्‍ध करा रहा है। यह देखा भी गया है कि सामान्‍य तौर पर त्रिकोण में अशुभफल प्रदान करने वाले क्रूर ग्रह भी अपनी उच्‍च अथवा सहज अवस्‍था में होने पर शुभदायी परिणाम देने लगते हैं।

मेरा अध्‍ययन और मेरे मत (Lord Krishna Horoscope Analysis)

भगवान श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली को मैं भी अपने स्‍तर पर एक विद्यार्थी की भांति देखता हूं तो ज्‍योतिष के कई सूत्र स्‍पष्‍ट होते हैं। पहला तो यह कि द्वितीय भाव निष्किलंक हो यानी किसी ग्रह की दृष्टि अथवा दुष्‍प्रभाव न हो और द्वितीयेश उच्‍च का हो तो जातक ऊंचे स्‍तर का वक्‍ता होता है। वृषभ लग्‍न में द्वितीयेश बुध उच्‍च का होकर पंचम भाव में बैठता है तो कृष्‍ण को ऐसा वक्‍ता बनाता है कि भरी सभा में जब कृष्‍ण बोल रहे हों तो कोई उनकी बात को काटता नहीं है। शिशुपाल जैसा मूर्ख अगर मूर्खतापूर्ण तरीके से टोकता भी है तो उसका वध भी निश्चित हो जाता है। अन्‍य ग्रहों के बारे में भी मेरा अध्‍ययन और मेरे मत मैं स्‍पष्‍ट करता हूं…

पराक्रम भाव (Third House in Kundali)

तीसरे भाव और पराक्रम का सीधा संबंध है। श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली में तीसरा भाव बहुत ही महत्‍वपूर्ण है। इस भाव का अधिपति चंद्रमा उच्‍च का होकर लग्‍न में बैठता है। इसके साथ ही इस भाव को उच्‍च का शनि और उच्‍च का मंगल भी देखता है। जिस भाव पर मंगल और शनि दोनों की दृष्टि हो उस भाव से संबंधित फलों में तीव्र उतार चढ़ाव देखा जाता है। एक तरफ हमें चौअक्षुणी सेना और कौरवों के महारथियों के बीच स्थिर भाव से खड़े होकर अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते कृष्‍ण दिखाई देते हैं, तो दूसरी ओर उन्‍हीं कृष्‍ण को हम रणछोड़दास के रूप में भी देखते हैं। हंसी खेल की तरह पूतना से लेकर कंस तक का वध कर देने वाले कृष्‍ण हमें मथुरा छोड़ द्वारिका बसाते हुए भी मिल जाते हैं। एक तरफ पराक्रम की पराकाष्‍ठा दिखाई देती है तो दूसरी तरफ रण छोड़ देने की कला भी। यह दोनों पराकाष्‍ठाएं मंगल और शनि के तृतीय यानी पराक्रम भाव को प्रभावित करने के कारण दृष्टिगोचर होती हैं।

भ्राता और बाल सखा (Jupiter in Eleventh House)

एकादश भाव में सूर्य किसी भी जातक के बड़े भाई और सखाओं के बारे में बताता है। यहां उपस्थित बृहस्‍पति हमें बताता है इन दोनों का ही प्रमुख रूप से अभाव रहेगा। श्रीकृष्‍ण से पहले पैदा हुए सात भाई बहिन कंस की सनक के कारण काल का ग्रास बन गए। बलराम को भी अपनी मां की कोख छोड़कर रोहिणी की कोख का सहारा लेना पड़ा, तब पैदा हुए और श्रीकृष्‍ण के साथ बड़े हुए। सगे भाई होते हुए भी सौतेले भाई की तरह जन्‍म हुआ। बाद में स्‍यमंतक मणि के कारण श्रीकृष्‍ण और बलराम के बीच मतभेद हुए, महाभारत के युद्ध में भी बलराम ने भाग नहीं लिया क्‍योंकि पाण्‍डवों के शत्रु दुर्योधन को उन्‍होंने गदा चलाने की शिक्षा दी थी। कुल मिलाकर भ्राता के रूप में बलराम कृष्‍ण के लिए उतने अनुकूल नहीं रहे, जितने एक भ्राता के रूप में होने चाहिए थे। अगर बलराम पाण्‍डवों की ओर से युद्ध में आ खड़े होते तो पाण्‍डवों का पलड़ा युद्ध से पहले ही भारी हो चुका होता। लेकिन कृष्‍ण लीला को यह मंजूर नहीं था, सो बलराम दूर रहे।

चतुर्थ का सूर्य  (Sun in Fourth House)

सूर्य जिस भाव में बैठता है, उस भाव को सूर्य का ताप झेलना पड़ता है, श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली में सूर्य चतुर्थ भाव में बैठता है, तो माता का वियोग निश्चित रूप से होता है। एक ही बार नहीं, माता देवकी और माता यशोदा दोनों को पुत्रवियोग झेलना पड़ा था। जन्‍म के बाद श्रीकृष्‍ण अपनी जन्‍मदायी मां के पास नहीं रह पाए और किशोरावस्‍था में पहुंचते पहुंचते अपना पालन करने वाली माता को भी त्‍याग देना पड़ा।

लाभ भाव का बृहस्‍पति (Jupiter in Eleventh House)

वृहस्‍पति ऐसा ग्रह है जो जिस भाव में बैठता है उस भाव को तो नष्‍ट करता ही है, साथ ही लाभ के भाव में हानि और व्‍यय के भाव में लाभ देने वाला साबित होता है। यहां लाभ भाव में बैठा वृ‍हस्‍पति वास्‍तव में कृष्‍ण की सभी सफलताओं को बहुत अधिक कठिन बना देता है। यह तो उस अवतार की ही विशिष्‍टता थी कि हर दुरूह स्थिति का सामना दुर्धर्ष तरीके से किया और अपनी लीला को ही खेल बना दिया। एकादश भाव शनि का भाव है, इस भाव में वृहस्‍पति के बैठने पर जातक को कोई भी सफलता सीधे रास्‍ते से नहीं मिलती है। जातक को अपने हर कार्य को संपादित करने के लिए जुगत लगानी पड़ती है। कृष्‍ण को चाहे जीवित रखने के लिए संतान बदलनी पड़े, चाहे शिशुपाल को मारने के लिए सुदर्शन चक्र चलाना पड़े, चाहे यदुवंश के विकास के लिए द्वारिका जाना पड़े, चाहे जरासंघ के वध के लिए भीम का अनुनय करना पड़े, हमें कृष्‍ण अपने हर कार्य के लिए विशि‍ष्‍ट युक्ति प्रयोग करते हुए दिखाई देते हैं। सामान्‍य रूप से इन युक्तियों का इस्‍तेमाल भी असंभव जान पड़ता है, लेकिन श्रीकृष्‍ण सहज रूप से अपने लिए उन स्थितियों को गढ़ते चले जाते हैं।

संतान और बुध (Mercury in Fifth House)

सामान्‍य तौर पर ज्‍योतिषीय कोण से देखा जाए तो पंचम भाव में बुध की उ‍पस्थिति कन्‍या के जन्‍म होने का संकेत करती है, लेकिन जहां मैंने पूर्व में भी अपना प्रेक्षण लिखा है कि किसी भी जातक की कुण्‍डली में चंद्रमा जितना अधिक मजबूत होगा, जातक के पुत्र होने की संभावनाएं बढ़ेंगी और कुण्‍डली में चंद्रमा के बलहीन होने पर कन्‍या संतति होने की संभावना अधिक होती है। भगवान श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली में पंचम में उच्‍च का बुध देखकर सूरदासजी जहां अधिक सं‍तति की बात करते हैं, वहीं पुत्र संतति के लिए मैं लग्‍न में बलशाली चंद्रमा के योग को अधिक सबल मानता हूं। यहां बुध केवल संतति की संख्‍या अधिक होने की ओर ही इंगित करता है। ऐसे में हम निष्‍कर्ष निकाल सकते हैं कि संतति होने अथवा नहीं होने, अधिक या कम होने को हम पंचम भाव से ही देखेंगे, लेकिन पुत्र होगा अथवा पुत्री यह देखने के लिए हमें कुण्‍डली में चंद्रमा की स्थिति को प्रमुख रूप से देखना होगा।

रोग-रिपु भाव (Saturn and Venus in Sixth House)

भगवान श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली में जो सबसे शक्तिशाली भाव है वह है छठा यानी रोग, ऋण और शत्रु का भाव। यहां हमें एक व्‍याघात यानी कांट्राडिक्‍शन देखने को मिलता है। श्रीकृष्‍ण का जन्‍म विपरीत परिस्थितियों में होता है, शत्रु की छांव में होता है। जन्‍म के छठे दिन ही पूतना का वध करते हैं। मात्र 11 साल की उम्र में उस दौर के सबसे शक्तिशाली दुर्दांत सम्राट कंस का वध करते हैं। होना तो यह चाहिए था कि श्रीकृष्‍ण कंस को मारकर राजा बन जाते और शेष बचे शत्रु या तो स्‍वयं झुक जाते अथवा उन्‍हें खत्‍म किया जाता, लेकिन केशव ने ये दोनों ही काम नहीं किए। इतना ही नहीं चाहे मथुरा हो या द्वारिका कहीं भी स्‍वयं राजा के तौर पर स्थिर नहीं हुए। इसके साथ ही शत्रुओं का दबाव आखिर तक बना रहा। छठे भाव में उच्‍च के शनि ने उन्‍हें शक्तिशाली शत्रु दिए। षष्‍ठम भाव मातुल यानी मामा का भी होता है, तो यहां मामा ही शत्रु के रूप में उभरकर आए। अब भावात् भाव सिद्धांत से देखें तो मामा का तुला लग्‍न हुआ और तुला लग्‍न का बाधकस्‍थान ग्‍यारहवां भाव होता है। यानी श्रीकृष्‍ण की कुण्‍डली का चौथा भाव यहां सिंह राशि है जिसमें सूर्य स्‍वक्षेत्री होकर बैठा है। ऐसे में मामा के लिए चतुर्थ का सूर्य बाधकस्‍थानाधिपति की भूमिका निभाता है। इसी के साथ छठे भाव में स्‍वराशि का शुक्र भी शत्रुओं का नाश करने वाला सिद्ध होता है।

केएस कृष्‍णामूर्ति ने कुण्‍डली के छह भावों को श्रेष्‍ठ बताया है। इनमें लग्‍न, द्वितीय, तृतीय, षष्‍ठम, दशम एवं एकादश शामिल हैं। छठा भाव इस कारण भी महत्‍वपूण है कि यह आपकी सेवा प्रवृत्ति को दर्शाता है, यह आपके शत्रुओं को दर्शाता है, उनकी ताकत और कमजोरियों के बारे में बताता है। जब जीवन ही दौड़ हो तो हमें पता होना चाहिए कि साथ दौड़ रहे या प्रतिस्‍पर्द्धा कर रहे दूसरे जातकों के साथ हमारा संबंध कैसा रहेगा। कोई आईएएस की परीक्षा के लिए प्रतिस्‍पर्द्धा कर रहा है तो कोई अपना कारोबार जमाने के लिए। ऐसे में छठा भाव महत्‍वपूर्ण हो जाता है।

श्रीकृष्‍ण का लग्‍नेश ही छठे भाव में स्‍वग्रही होकर बैठ गया है। ऐसे में वे खुद प्रथम श्रेणी के पद नहीं ले रहे हैं, लेकिन हर प्रतिस्‍पर्द्धा में, हर युद्ध में, हर वार्ता में वे श्रेष्‍ठ साबित होते जा रहे हैं। यह लग्‍न और षष्‍ठम का बहुत खूबसूरत मेल है।

सप्‍तम राहु और दांपत्‍य जीवन (Rahu in Seventh House)

इसमें कोई दो राय नहीं है कि श्रीकृष्‍ण का संबंध बहुत सी गोपिकाओं और राजकुमारियों से रहा। कुल 16 हजार 108 विवाह किए। यहां हमें देखना होगा कि स्‍त्री और पुरुष का संबंध हर बार केवल शारीरिक ही नहीं होता है। श्रीकृष्‍ण कहीं आध्‍यात्मिक रूप से जुड़े दिखाई देते हैं, कहीं साधारण दांपत्‍य जीवन के रूप में, कहीं गोपिकाओं से शरारत के अंदाज में तो कहीं उद्धारक के रूप में। सप्‍तम के राहु को देखकर सूरदासजी कहते हैं रसिक शिरोमणी का ऊंच नीच हर कुल की स्‍त्री से संबंध रहा, तो यहां संबंध से तात्‍पर्य केवल शारीरिक संपर्क नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि राहु जिस भाव में बैठेगा उस भाव के संबंध में अनि‍श्चितता बनाए रखेगा। सप्‍तम भाव केवल पत्‍नी का ही नहीं होता है। यात्रा में साथ चल रहे सहयात्री का, व्‍यवसाय में साझेदार का, युद्ध में आपकी ओर से लड़ रहे सहयोद्धा का और तो और एक ही नाव में सवार दो लोगों को भी एक दूसरे के सप्‍तम भाव से ही देखा जाएगा।

यहां हम देखते हैं कि श्रीकृष्‍ण हर कुल और वर्ग के साथ संबंध बनाते हुए चलते हैं। इसके बावजूद वे अपना अधिकांश समय किसके साथ और कैसे बिताते हैं कभी स्‍पष्‍ट नहीं हो पाता है। एक तरफ गोपिका आकर कहती है कि वह चोर मेरा माखन चुरा रहा था, तो वहीं यशोदा बताती है कि वह अपने खिलौनों से भीतर खेल रहा है। एक तरफ मथुरा से द्वारका की ओर प्रयाण हो रहा है तो दूसरी ओर महाभारत की व्‍यूह रचना रची जा रही है। इस सबके बावजूद कृष्‍ण अपने हर साथी से अकेले मिलने का अवसर भी उठा लेते हैं। यानी श्रीकृष्‍ण हर समय अकेले भी हैं, किसी न किसी के साथ भी हैं और किसी के साथ नहीं है। अपने साथियों के साथ भी नहीं।


यह विश्‍लेषण मेरे निजी स्‍तर पर अब तक मेरे उपलब्‍ध अल्‍पज्ञान से उपजा विनम्र प्रयास मात्र है। अगर किसी ज्‍योतिष विद्यार्थी को इस विश्‍लेषण को पढ़ने से किसी प्रकार का लाभ होता है तो मुझे यह प्रयास सार्थक लगेगा। अगर आपको लेख में किसी प्रकार की कमी अथवा विस्‍तार की संभावना लगे तो कृपया मुझे imjoshig[@]gmail.com पर लिखें। मुझे प्रसन्‍नता होगी।


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