ज्योतिष की टर्मिनोलॉजी के साथ यह दिक्कत है कि इसके अधिकांश शब्द आम बोलचाल की भाषा से मेल खाते हैं।
परिणाम यह होता है कि जो जातक शुरूआती दो चार पुस्तकें पढ़कर प्राथमिक ज्ञान लेता है, वह भी इस विषय पर अधिकार से बोलने लगता है और आगे के स्तर के योगों, खगोलीय घटनाओं और ज्योतिषीय सूत्रों तक की व्याख्या अपनी सहज बुद्धि से करने का प्रयास करने लगता है।
वक्री-मार्गी, उदय-अस्त, बाल-वृद्ध, शुभ-पाप, मृदु-कठोर, सौम्य-क्रूर (neech, uchch, saumya, krur, shubh, paap, mrudu, kathor) जैसे ग्रहों और नक्षत्रों के साथ जुड़ी ज्योतिष शब्दावली (Jyotish Shabdavali) को साहित्य की शब्दावली के साथ जोड़कर अपने आप ऐसे ऐसे अर्थ निकालता है कि सुनने वाले रोने लगे।
होता यह है कि ग्रहों के संबोधन को ही उनका असर मान लिया जाता है। जैसे
नीच के ग्रह को नीच यानि घटिया
उच्च के ग्रह को उच्च यानि श्रेष्ठ
वक्री का अर्थ उल्टा चलने वाला
मार्गी का अर्थ सीधा चलने वाला
मृदु का अर्थ कोमल स्वभाव वाला
सौम्य का अर्थ सौम्य और सकारात्मक स्वभाव वाला
क्रूर का अर्थ बुरा और कठोर स्वभाव वाला
शुभ का अर्थ अच्छे परिणाम देने वाला
पाप का अर्थ पाप कर्म करने वाला…
ग्रहों और नक्षत्रों की इन संज्ञाओं का अर्थ कभी भी फलादेश में सीधे प्रयुक्त नहीं होता है। ग्रहों और नक्षत्रों की अवस्थाओं को देखने के लिए यह संज्ञाएं दी गई हैं।
कोई ग्रह किसी विशेष राशि में और विशेष भाव में किस अवस्था में बैठा है, यह ज्ञात करने के लिए उपरोक्त सभी प्रकार की संज्ञाओं का इस्तेमाल किया गया है। अगर चंद्रमा सौम्य और सूर्य क्रूर है तो इसका यह कतई अर्थ नहीं है कि चंद्रमा आपको हमेशा अच्छे परिणाम देगा।
अगर ऐसा होता तो दुनिया में चांदमारे होते ही नहीं। अधिकांश मानसिक बीमारियां चंद्रमा से जनित हैं। यहां तक कि पूर्ण चंद्रमा को सर्वाधिक शुभ कहा गया है, इसके बावजूद पूर्ण चंद्रमा यानी पूर्णिमा के दिन चांदमारों यानी मानसिक रोगियों की सबसे ज्यादा हालत खराब होती है।
वहीं सूर्य को क्रूर बताया गया है, जबकि यह स्पष्ट योग है कि सूर्य लग्न में योगकारक स्थिति में बैठा हो तो जातक न केवल शीघ्र धन अर्जन शुरू कर देता है, इतना शीघ्र कि टीन एज भी पूरी नहीं करता और ट्यूशन पढ़ाने अथवा पार्ट टाइम काम करके धन कमाना शुरू कर देता है और जिस विभाग अथवा अनुभाग में काम करता है, उसके शीर्ष पद तक पहुंचता है।
किसी जातक की कुण्डली में किसी ग्रह को नीच का देखकर यह कह देने वाले नौसिखिया ज्योतिषियों की कमी नहीं है कि जातक नीच कर्म करने वाला होगा, या किसी भाव विशेष में शुभ ग्रहों की स्थिति देखकर कह देते हैं कि यहां शुभ ग्रह बैठा है तो फल अच्छे मिलेंगे। मसलन गुरु शुभ और सौम्य ग्रह है।
ऐसे में इसे तो हमेशा अच्छे ही परिणाम देने चाहिए, लेकिन अकेला गुरु अगर सातवें अथवा ग्यारहवें भाव में बैठता है, तो अधिकांश मामलों में यह नकारात्मक परिणाम ही देता है। वहीं मंगल जो कि क्रूर ग्रह है नीच का होकर लग्न अथवा दशम भाव में बैठे तो बहुत अच्छे परिणाम देता है। कई बार सर्जन, सेना अधिकारियों और मैनेजमेंट के उच्च पदों पर बैठे जातकों की कुण्डली में यह योग मिल जाता है।
ग्रहों की संज्ञा के आधार पर उनके स्वभाव का निर्धारण करने की गलती केवल शौकिया या नौसिखिए ही नहीं बरते मैंने कई बार स्थापित ज्योतिषियों को भी यही गलती दोहराते हुए देखा है। आम बोलचाल की भाषा और ज्योतिष की शब्दावली में एकरूपता होने के कारण इस प्रकार का भ्रम होना स्वाभाविक भी है।
वक्री ग्रह (Vakri grah)
सौरमण्डल में ग्रह सूर्य के चारों ओर दीर्धवृत्ताकार कक्ष में परिक्रमा करते हैं। इस दौरान ग्रह कई बार सूर्य के बिल्कुल नजदीक आ जाते हैं तो कई बार अधिकतम दूरी पर चले जाते हैं। भारतीय ज्योतिष में सूर्य को भी एक ग्रह मानकर गणनाएं की जाती हैं। पृथ्वी भी सूर्य के चारों ओर उसी प्रकार के दीर्धवृत्त में गति करती है।
पृथ्वी पर खड़े अन्वेषक को दिखाई देता है कि सूर्य के बिल्कुल पास पहुंच चुका ग्रह अपनी सामान्य गति से ही सूर्य से आगे निकल रहा है तो अन्वेषक के स्तर पर उसे तीव्रगामी कहेंगे। वही ग्रह जब सूर्य से अधिकतम दूरी पर होता है तो अन्वेषक को ग्रह की गति सूर्य की तुलना में धीमी होती दिखाई देती है।
इसे कहते हैं ग्रह का वक्री होना। चूंकि बुध सूर्य के सबसे नजदीक है। ऐसे में सबसे कम अंतराल में बुध वक्री, मार्गी, मंदगामी और अतिगामी होता है। वहीं शनि सबसे अधिक दूरी पर होने के कारण बहुत धीमी रफ्तार से अपनी ऐसी गति प्रदर्शित करता है। पृथ्वी की तुलना में सूर्य के चारों की ओर की सापेक्ष गति ही इन ग्रहों के वक्री और मार्गी होने का निर्धारण करती है।
वास्तव में कोई ग्रह कभी भी न तो स्थिर होता है, न धीमा अथवा तेज चलता है, वह हमेशा अपनी निश्चित गति से सूर्य के चारों ओर चक्कर लगात रहता है।
वक्री ग्रह का प्रभाव (Vakri grah ka Prabhaav)
अब दूसरा और महत्वपूर्ण प्वाइंट है कि वक्री ग्रह का परिणाम क्या होगा। इसके लिए उदाहरण लेते हैं बुध का। बुध कभी भी सूर्य से तीसरे घर से दूर नहीं जा पाता है। यानि 28 डिग्री को पार नहीं कर पाता है। इसी के साथ दूसरा तथ्य यह है कि सूर्य के दस डिग्री से अधिक नजदीक आने वाला ग्रह अस्त हो जाता है।
अब बुध नजदीक होगा तो अस्त हो जाएगा और दूर जाएगा तो वक्री हो जाएगा। ऐसे में बुध का रिजल्ट तो हमेशा ही नेगेटिव ही आना चाहिए। शब्दों के आधार पर देखें तो ग्रह के अस्त होने का मतलब हुआ कि ग्रह की बत्ती बुझ गई, और अब वह कोई प्रभाव नहीं देगा और वक्री होने का अर्थ हुआ कि वह नेगेटिव प्रभाव देगा।
वास्तव में दोनों ही स्थितियां नहीं होती। सामान्य शब्दावली से हटकर वास्तविक स्थिति में देखें तो सूर्य के बिल्कुल पास आया बुध अस्त तो हो जाता है लेकिन अपने प्रभाव सूर्य में मिला देता है।
यही तो होता है बुधादित्य योग। ऐसे जातक सामान्य से अधिक बुद्धिमान होते हैं। इसी बुद्धादित्य योग का सबसे अच्छा परिणाम दिखाई देता है चौथे, पांचवे और आठवें भाव में बनने वाले योग में।
यानि सूर्य के साथ बुध का प्रभाव मिलने पर बुद्धि अधिक पैनी हो जाती है। दूसरी ओर वक्री ग्रह का प्रभाव। सूर्य से दूर जाने पर बुध अपने मूल स्वरूप में लौट आता है। जब वह वक्री होता है तो पृथ्वी पर खड़े अन्वेषक को अधिक देर तक अपनी रश्मियां देता है। यहां अपनी रश्मियों से अर्थ यह नहीं है कि बुध से कोई रश्मियां निकलती हैं, वरन् बुध के प्रभाव वाली तारों की रश्मियां अधिक देर तक अन्वेषक को मिलती है।
ऐसे में कह सकते हैं बुध उच्च के परिणाम देगा। अब यहां उच्च का अर्थ अच्छे से नहीं बल्कि अधिक प्रभाव देने से है। तो अब यह सवाल हो सकता है कि बुध कब अच्छे या खराब प्रभाव देगा? इसका जवाब बहुत आसान है।
जिस कुण्डली में बुध कारक हो और अच्छी पोजिशन पर बैठा हो वहां अच्छे परिणाम देगा और जिस कुण्डली में खराब पोजिशन पर बैठा हो वहां खराब परिणाम देगा।
इसके अलावा जिन कुण्डलियों में बुध अकारक है उनमें बुध कैसी भी स्थिति में हो, उसके अधिक प्रभाव देखने को नहीं मिलेंगे।
…क्रमश: