अब तक हमने जाना कि तेरहवीं राशि को किस प्रकार बीच में घुसाया गया है। अब चर्चा करते हैं कि किस प्रकार परम्परागत भारतीय ज्योतिष में राशियों का बंटवारा नक्षत्र स्तर तक है और पश्चिमी गणना (Zodiac Division) किस प्रकार चल रही है। हमारे पास भी एक तेरहवां महीना है, लेकिन हमने बजाय कि उसे तेरहवीं राशि बना देने के गणना के स्तर पर ही तेरहवां महीना बनाकर अपनी गणना पद्धति को आत्मसंश्लेषित बना दिया है। इससे चंद्रमास और सौरवर्ष के साथ ऋतुओं का चक्र भी नियमित बना रहता है।
ऐसा नहीं है कि सूर्य की गति इतनी सीधी सादी है कि इसे बराबर भागों में बांट दिया जाए और यह सालों, दशकों या शताब्दियों तक इसी प्रकार बंटी रहे। इसमें निरंतन सुधार करने की गुंजाइश बनी रहती है। वेद में इस गणना को कुछ इस प्रकार समझा गया…
वेदमासो घृतव्रतो द्वादश प्रजावत:।। वेदा य उपजायते।।
इसका अर्थ है जो व्रतावलम्बन करके अपने अपने फलोत्पादक बारह महीनों को जानते हैं और उत्पन्न होने वाले तेरहवें मास को भी जानते हैं। इससे पता चलता है कि तेरहवां महीना बढ़ाकर वर्ष के भीतर ऋतुओं का हिसाब दुरुस्त रखा जाता था। वाजसनेयी संहिता में बारह महीनों के नामों के साथ तेरहवें महीने की भी चर्चा है। इनके नाम इस प्रकार हैं। मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभ, नभस्य, इष, ऊर्ज, सह, सहस्य, तपस, तपस्य और तेरहवां अंहसस्पति। इसी प्रकार तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी तेरहवें महीने का नाम दिया गया था। इसे महस्वान् कहा गया। ऐतरेय ब्राह्मण ने भी तेरहवें मास की चर्चा की है।
द्वादशारत्नी रशना कर्तव्यास 3 त्रयोदशारत्नी 3 रिति।। ऋषभो वा एषऋतूनां।। यत्संवत्सर।।तस्य त्रयोदशो मासो विष्टपं।। ऋषभ एष यज्ञानां।। यदश्वमेघ:।। यथा वा ऋषभस्य विष्टपं।। एवमतस्य विष्टतपं।।
अर्थ – रस्सी को बारह हाथ की करें या 13 हाथ की? संवत्सर जो है वह ऋतुओं का वृषभ है। तेरहवां महीना उसका विष्टप यानी पूंछ है। अश्वमेघ यज्ञों का ऋषभ है। जैसे ऋषभ की पूंछ होती है उसी तरह यह अश्वमेघ की पूंछ है। इसी तरह ताण्ड्य ब्राह्मण जो कि सामवेद का ब्राह्मण है, कहता है कि
यथा वै दृतिराध्मात एवं संवत्सरोनुत्सृष्ट।। तां, ब्रा. 5.10.2
अर्थ यादि एक दिन न छोड़ दिया जाएगा तो वर्ष वैसे ही फूल जाएगा जैसे चमड़े का मशक। हमारे ही प्राचीन ग्रंथों में गणनाएं मिलती हैं जो कि साल को 360 दिन या इसके आस पास मानती हैं। इसका नतीजा यह होता है कि हर पांच साल बाद जब एक युग समाप्त होता है तब हमें एक अधिक मास की जरूरत पड़ती है, जो कि पिछले पांच साल से गणनाओं में आ रहे अंतराल को संभाल ले।
अब बात करते हैं मास और वर्ष की गणना में आ रही व्यावहारिक समस्याओं की। तैत्तरीय ब्राह्मण में ही कहा गया है उत्तरयोरादधीत एषा वै प्रथम रात्रि: यानी जिस पूर्णिमा के समाप्त होने पर उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र आए उसे संवत्सर की प्रथम रात्रि मानी जाए। ऐसे में संवत्सर शुरू होना तय हो गया। एक साल बाद चंद्रमा फिर से यहीं पर आएगा तब अगला साल शुरू होगा। लेकिन समस्या यह है कि 365.25 दिन के वर्ष में चंद्रमा के 29.50 दिन के मास होते हैं। ऐसे में मान लीजिए पिछले साल चैत्र में पूर्णिमा पर चंद्रमा चित्रा नक्षत्र के करीब था, लेकिन इस साल करीब 11 डिग्री पहले ही पूर्णिमा हो जाएगी। ऐसे में प्रतिवर्ष चंद्रमा 11 डिग्री पिछड़ता जाएगा। ऐसे में करीब ढाई साल बाद जब अधिमास आएगा तभी चंद्रमा फिर से तीस डिग्री वापस आगे खिसककर इस कमी को पूरा कर पाएगा। यही वेदांग ज्योतिष की युग संबंधी अवधारणा है। एक युग में दो बार अधिमास आएंगे, जो चंद्र मास और सौर वर्ष की इस जटिलता को हल करेंगे। गौर करने की बात यह है कि इस सुधार के बाद भी हमें बहुत अधिक सटीक परिणाम नहीं मिलते। ऐसे में वेदांग ज्योतिष के बहुत बाद में आर्यभट ने आर्यभट्टीय में इसी गणना दी। इसमें उन्होंने 43 लाख 20 हजार वर्ष का युग निर्धारण किया।
इस तरह हम देखते हैं कि यह तेरहवें महीने की कहानी पश्चिम में कोई नई नहीं है। वर्ष की गणनाओं को किसी एक सूत्र में बांधने का परिणाम इस तरहवें महीने के रूप में होता है। चूंकि हमारी गणनाएं अधिक संश्लेषित हैं। ऐसे में मास का आधार चंद्र को बनाया गया और वर्ष का आधार सूर्य को बनाया गया। वहीं पश्चिम में सौर वर्ष की ही गणना की गई और आखिर में साल के दिनों को स्थाई रूप से सूर्य की संबंधित राशि को सौंप दिए गए। ऐसे में सूर्य के विचलन के बाद इस प्रकार गणनाओं में भेद आना स्वाभाविक था। वही हुआ। आज हजारों साल बाद जब हम गणनाओं में लगातार करेक्शन कर आकाश की स्थिति को अपनी गणित में बांधे हुए हैं, वहीं पश्चिमी ज्योतिषियों को पंद्रह डिग्री के करेक्शन के लिए एक नई राशि का गठन करना पड़ रहा है। यकीन मानिए इससे समस्या का समाधान होने के बजाय समस्या बढ़ेगी ही। कुछ प्रमुख समस्याएं जो सामने आएंगी वे हैं….
– नक्षत्रों का विभाजन किस आधार पर होगा। – सूर्य की इस नई राशि पर किस ग्रह का अधिक बताया जाएगा।
– जो उन्नीस दिन अतिरिक्त शामिल होंगे, उन दिनों से संबंधित व्यक्तियों के फलादेशों में नया क्या जोड़ा जाएगा।
– और सबसे टेढ़ी बात यह कि करीब 24 हजार साल बाद जब फिर से सूर्य और चंद्रमा अपनी गति को दोहरा रहे होंगे, तब क्या इस नई राशि का लोप कर दिया जाएगा।
अगले लेख में हम चर्चा करेंगे कि पश्चिमी ज्योतिषियों ने तेरहवीं राशि के जो गुण बताए हैं, वे किस प्रकार के गुण हैं और सामान्य जातक के जीवन में उन गुणों का क्या अर्थ है।