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भारतीय ज्‍योतिष bhartiya jyotish

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ब्रह्माजी, आचार्य, वशिष्‍ठ, अत्रि, मनु, पौलस्‍त्‍य, लोमेश, मरीचि, अंगिरा, वेदव्‍यास, नारद, शौनक, भृगु, च्‍यवन, यवनाचार्य, गर्ग, कश्‍यप और पराशर ऋषि ने भारतीय ज्‍योतिष की नींव रखी है। वर्तमान में हम जिस ज्‍योतिष (bhartiya jyotish) का अभ्‍यास कर रहे हैं, उसकी नींव वेदों में पड़ी। जंगलों के घुमन्‍तु जीवन से कृषि आधारित स्‍थाई निवास की ओर बढ़े मनुष्‍य को यह जानने की नितांत आवश्‍यकता थी कि अगली बारिश कब होगी, ताकि उसकी तैयारी के लिए भूमि को तैयार किया जा सके और बीज रोपे जा सकें। दिन और रात स्‍पष्‍ट थे सूर्य और चंद्रमा के साथ, लेकिन मौसम चक्र को बांधने के लिए इनकी सापेक्ष गणनाओं की जरूरत थी। जैसे जैसे हम प्रकृति को समझते गए और उसे कालक्रम में बांधने का प्रयास करते गए, ज्‍योतिष का विकास होता गया।

ज्‍योतिष वेदों जितना ही प्राचीन है। प्राचीन काल में ग्रह, नक्षत्र और अन्‍य खगोलीय पिण्‍डों का अध्‍ययन करने के विषय को ही ज्‍योतिष कहा गया है। ज्‍योतिष के तीन भाग हैं। तन्त्र या सिद्धान्त – गणित द्वारा ग्रहों की गतियों और नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त करना तथा उन्हें निश्चित करना। होरा – जिसका सम्बन्ध कुण्डली बनाने से था। इसके तीन उपविभाग थे । क- जातक, ख- यात्रा, ग- विवाह। शाखा – यह एक विस्तृत भाग था जिसमें शकुन परीक्षण, लक्षणपरीक्षण एवं भविष्य सूचन का विवरण था। इन तीनों स्कन्धों ( तन्त्र-होरा-शाखा ) का जो ज्ञाता होता था उसे ‘संहितापारग’ कहा जाता था।

सिद्धान्त में मुख्यतः दो भाग होते हैं, एक में ग्रह आदि की गणना और दूसरे में सृष्टि-आरम्भ, गोल विचार, यन्त्ररचना और कालगणना सम्बन्धी मान रहते हैं। तंत्र और सिद्धान्त को बिल्कुल पृथक् नहीं रखा जा सकता । सिद्धान्त, तन्त्र और करण के लक्षणों में यह है कि ग्रहगणित का विचार जिसमें कल्पादि या सृष्टयादि से हो वह सिद्धान्त, जिसमें महायुगादि से हो वह तन्त्र और जिसमें किसी इष्टशक से (जैसे कलियुग के आरम्भ से) हो वह करण कहलाता है । मात्र ग्रहगणित की दृष्टि से देखा जाय तो इन तीनों में कोई भेद नहीं है। सिद्धान्त, तन्त्र या करण ग्रन्थ के जिन प्रकरणों में ग्रहगणित का विचार रहता है वे क्रमशः इस प्रकार हैं-

  • मध्यमाधिकार
  • स्पष्टाधिकार
  • त्रिप्रश्नाधिकार
  • चन्द्रग्रहणाधिकार
  • सूर्यग्रहणाधिकार
  • छायाधिकार
  • उदयास्ताधिकार
  • शृङ्गोन्नत्यधिकार
  • ग्रहयुत्यधिकार
  • याताधिकार

‘ज्योतिष’ से निम्नलिखित का बोध हो सकता है-

  • वेदाङ्ग ज्योतिष (Vedang jyotish)
  • सिद्धान्त ज्योतिष या ‘गणित ज्योतिष’ (Theoretical astronomy)
  • फलित ज्योतिष (Astrology)
  • अंक ज्योतिष (Numerology)
  • खगोल शास्त्र (Astronomy)

भारतीय ज्योतिष (Indian Astrology/Hindu Astrology) ग्रह नक्षत्रों की गणना की वह पद्धति है जिसका भारत में विकास हुआ है। आजकल भी भारत में इसी पद्धति से पंचांग बनते हैं, जिनके आधार पर देश भर में धार्मिक कृत्य तथा पर्व मनाए जाते हैं। वर्तमान काल में अधिकांश पंचांग सूर्य सिद्धांत, मकरंद सारणियों तथा ग्रहलाघव की विधि से प्रस्तुत किए जाते हैं।

परिचय एवं इतिहास

वैदिककाल से ही भारतीयों ने वेधों द्वारा सूर्य और चंद्रमा की स्थितियों से काल का ज्ञान प्राप्त करना शुरू किया। वे 12 चांद्र मास तथा चांद्र मासों को सौर वर्ष से संबद्ध करनेवाले अधिमास को भी जानते थे। दिन को चंद्रमा के नक्षत्र से व्यक्त करते थे। उन्हें चंद्रगतियों के ज्ञानोपयोगी चांद्र राशिचक्र का ज्ञान था। वर्ष के दिनों की संख्या 366 थी, जिनमें से चांद्र वर्ष के लिये 12 दिन घटा देते थे।

वैदिक काल में भारतीयों ने मासों के 12 नाम मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नमस्‌, नमस्य, इष, ऊर्ज, सहस्र, तपस्‌ तथा तपस्य रखे थे। बाद में यही पूर्णिमा के दिन चन्द्र नक्षत्र के आधार पर चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन हो गए।

वेदांग ज्योतिष के अनुसार पाँच वर्षों का युग माना गया है, जिसमें 1830 माध्य सावन दिन, 62 चांद्र मास, 1860 तिथियाँ तथा 67 नाक्षत्र मास होते हैं। युग के पाँच वर्षों के नाम हैं :

  • संवत्सर
  • परिवत्सर
  • इदावत्सर
  • अनुवत्सर
  • इद्ववत्सर

इसके अनुसार तिथि तथा चांद्र नक्षत्र की गणना होती थी। इसके अनुसार मासों के माध्य सावन दिनों की गणना भी की गई है। वेदांग ज्यातिष में जो हमें महत्वपूर्ण बात मिलती है वह युग की कल्पना, जिसमें सूर्य और चंद्रमा के प्रत्यक्ष वेधों के आधार पर मध्यम गति ज्ञात करके इष्ट तिथि आदि निकाली गई है। आगे आनेवाले सिद्धांत ज्योतिष के ग्रंथों में इसी प्रणाली को अपनाकर मध्यम ग्रह निकाले गए हैं।

वेदांग ज्योतिष और सिद्धान्त ज्योतिष काल के भीतर कोई ज्योतिष गणना का ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता। किंतु इस बीच के साहित्य में ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह स्पष्ट है कि ज्योतिष के ज्ञान में वृद्धि अवश्य होती रही है, उदाहरण के लिये, महाभारत में कई स्थानों पर ग्रहों की स्थिति, ग्रहयुति, ग्रहयुद्ध आदि का वर्णन है। इससे इतना स्पष्ट है कि महाभारत के समय में भारतवासी ग्रहों के वेध तथा उनकी स्थिति से परिचित थे।’

सिद्धान्त ज्योतिष प्रणाली से लिखा हुआ प्रथम पौरुष ग्रंथ आर्यभट प्रथम की आर्यभटीयम्‌ (शक संo 421) है। तत्पश्चात्‌ बराहमिहिर (शक संo 427) द्वारा संपादित सिद्धांत पंचिका है, जिसमें पितामह, वासिष्ठ, रोमक, पुलिश तथा सूर्यसिद्धांतों का संग्रह है। वेदांग ज्योतिष तथा बराहमिहिर के समय के भीतर प्रचलित हो चुके थे। इसके बाद लिखे गए सिद्धांतग्रंथों में मुख्य हैं : ब्रह्मगुप्त (शक संo 520) का ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त, लल्ल (शक संo 560) का शिष्यधीवृद्धिद, श्रीपति (शक संo 961) का सिद्धान्तशेखर, भास्कराचार्य (शक संo 1036) का सिद्धान्तशिरोमणि, गणेश (1420 शक संo) का ग्रहलाघव तथा कमलाकर भट्ट (शक संo 1530) का सिद्धांत-तत्व-विवेक।

गणित ज्योतिष के ग्रंथों के दो वर्गीकरण हैं : सिद्धान्त ग्रन्थ तथा करण ग्रंथ। सिद्धांतग्रंथ युगादि अथवा कल्पादि पद्धति से तथा करणग्रंथ किसी शक के आरंभ की गणनापद्धति से लिखे गए हैं। गणित ज्योतिष ग्रंथों के मुख्य प्रतिपाद्य विषय है: मध्यम ग्रहों की गणना, स्पष्ट ग्रहों की गणना, दिक्‌, देश तथा काल, सूर्य और चंद्रगहण, ग्रहयुति, ग्रहच्छाया, सूर्य सांनिध्य से ग्रहों का उदयास्त, चंद्रमा की शृंगोन्नति, पातविवेचन तथा वेधयंत्रों का विवेचन।

गणना प्रणाली

पूरे वृत्त की परिधि 360 मान ली जाती है। इसका 360वाँ भाग एक अंश, उसका 60वाँ भाग एक कला, कला का 60वाँ भाग एक विकला, एक विकला का 60वाँ भाग एक प्रतिविकला होता है। 30 अंश की एक राशि होती है। ग्रहों की गणना के लिये क्रांतिवृत्त के, जिसमें सूर्य भ्रमण करता दिखलाई देता है, 12 भाग माने जाते हैं। इन भागों को मेष, वृष आदि राशियों के नाम से पुकारा जाता है। ग्रह की स्थिति बतलाने के लिये मेषादि से लेकर ग्रह के राशि, अंग, कला, तथा विकला बता दिए जाते हैं। यह ग्रह का भोगांश होता है। सिद्धांत ग्रंथों में प्रायः एक वृत्तचतुर्थांश (90 अंश का चाप) के 24 भाग करके उसकी ज्याएँ तथा कोटिज्याएँ निकाली रहती है। इनका मान कलात्मक रहता है। 90 के चाप की ज्या वृहद्वृत्त का अर्धव्यास होती है, जिसे त्रिज्या कहते हैं। इसको निम्नलिखित सूत्र से निकालते हैं :

परिधि = (3927/1250) x व्यास

इस प्रकार त्रिज्या का मान 3438 कला है, जो वास्तविक मान के आसन्न है। चाप की ज्या आधुनिक प्रणाली की तरह अर्धज्या है। वस्तुतः वर्तमान त्रिकोणामितिक निष्पत्तियों का विकास भारतीय प्रणाली के आधार पर हुआ है और आर्यभट को इसका आविष्कर्ता माना जाता है। यदि किन्हीं दो भिन्न आकार के वृत्तों के त्रिकोणमितीय मानों की तुलना करना अपेक्षित होता है, तो वृहद् वृत्त की त्रिज्या तथा अभीष्ट वृत्त की निष्पत्ति के आधार पर अभीष्ट वृत्त की परिधि अंशों में निकाली जाती है। इस प्रकार मंद और शीघ्र परिधियों में यद्यपि नवीन क्रम से अंशों की संख्या 360 ही है, तथापि सिद्धांतग्रंथों में लिखी हुई न्यून संख्याएँ केवल तुलनात्मक गणना के लिये हैं।

कालगणना (Calendar)

विषुवद् वृत्त में एक समगति से चलनेवाले मध्यम सूर्य (लंकोदयासन्न) के एक उदय से दूसरे उदय तक एक मध्यम सावन दिन होता है। यह वर्तमान कालिक अंग्रेजी के ‘सिविल डे’ (civil day) जैसा है। एक सावन दिन में 60 घटी; 1 घटी 24 मिनिट साठ पल; 1 पल 24 सेंकेड 60 विपल तथा ढाई विपल 1 सेंकेंड होते हैं। सूर्य के किसी स्थिर बिंदु (नक्षत्र) के सापेक्ष पृथ्वी की परिक्रमा के काल को सौर वर्ष कहते हैं। यह स्थिर बिंदु मेषादि है। ईसा के पाँचवे शतक के आसन्न तक यह बिंदु कांतिवृत्त तथा विषुवत्‌ के संपात में था। अब यह उस स्थान से लगभग 23 पश्चिम हट गया है, जिसे अयनांश कहते हैं। अयनगति विभिन्न ग्रंथों में एक सी नहीं है। यह लगभग प्रति वर्ष 1 कला मानी गई है। वर्तमान सूक्ष्म अयनगति 50.2 विकला है। सिद्धांतग्रथों का वर्षमान 365 दिo 15 घo 31 पo 31 विo 24 प्रति विo है। यह वास्तव मान से 8। 34। 37 पलादि अधिक है। इतने समय में सूर्य की गति 8.27″ होती है। इस प्रकार हमारे वर्षमान के कारण ही अयनगति की अधिक कल्पना है। वर्षों की गणना के लिये सौर वर्ष का प्रयोग किया जाता है। मासगणना के लिये चांद्र मासों का। सूर्य और चंद्रमा जब राश्यादि में समान होते हैं तब वह अमांतकाल तथा जब 6 राशि के अंतर पर होते हैं तब वह पूर्णिमांतकाल कहलाता है। एक अमांत से दूसरे अमांत तक एक चांद्र मास होता है, किंतु शर्त यह है कि उस समय में सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में अवश्य आ जाय। जिस चांद्र मास में सूर्य की संक्रांति नहीं पड़ती वह अधिमास कहलाता है। ऐसे वर्ष में 12 के स्थान पर 13 मास हो जाते हैं। इसी प्रकार यदि किसी चांद्र मास में दो संक्रांतियाँ पड़ जायँ तो एक मास का क्षय हो जाएगा। इस प्रकार मापों के चांद्र रहने पर भी यह प्रणाली सौर प्रणाली से संबद्ध है। चांद्र दिन की इकाई को तिथि कहते हैं। यह सूर्य और चंद्र के अंतर के 12वें भाग के बराबर होती है। हमारे धार्मिक दिन तिथियों से संबद्ध है। चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है उसे चांद्र नक्षत्र कहते हैं। अति प्राचीन काल में वार के स्थान पर चांद्र नक्षत्रों का प्रयोग होता था। काल के बड़े मानों को व्यक्त करने के लिये युग प्रणाली अपनाई जाती है। वह इस प्रकार है:

कृतयुग (सत्ययुग) 17,28,000 वर्ष

द्वापर 12,96,000 वर्ष

त्रेता 8,64,000 वर्ष

कलि 4,32,000 वर्ष

———————–

योग = महायुग 43,20,000 वर्ष

कल्प = 1000 महायुग 4,32,00,00,000 वर्ष

सूर्य सिद्धांत में बताए आँकड़ों के अनुसार कलियुग का आरंभ 17 फ़रवरी 3102 ईपू को हुआ था।

ग्रहों की कक्षाएं

ग्रहों की कक्षाएँ चंद्र, बुध, शुक्र, रवि, भौम, गुरु, शनि के क्रम से उत्तरोत्तर पृथ्वी से दूर हैं। इनका केंद्र पृथ्वी माना गया है। यद्यपि ग्रहों के साधन के लिये प्रत्येक कक्षा का अर्धव्यास त्रिज्यातुल्य कल्पित किया है, तथापि उनकी अंत्यफलज्या भिन्न होने के कारण उनकी दूरी विभिन्न प्रकार की आती है। शीघ्रांत्यफलज्याओं और त्रिज्याओं की ग्रहकक्षाव्यासार्धं और रविकक्षाव्यासार्ध से तुलना करने पर बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति तथा शनि की कक्षाओं के व्यासार्ध पृथ्वी से रवि की दूरी के सापेक्ष .3694, .7278, 1.5139, 5.1429 तथा 9.2308 आते हैं। आधुनिक सूक्ष्म मान .3871, .7233, 1.5237, 5.2028 तथा 9.5288 हैं।

  • ग्रहकक्षा और क्रांतिवृत्त के संपात को पात कहते हैं।
  • ग्रह के भ्रमणमार्ग को विमंडल कहते हैं।
  • क्रांतिवृत्त तथा विमंडल के बीच के कोण को परमविक्षेप कहते हैं।

इनके मान भूकेंद्रिक ज्ञात किए गए हैं। तमोग्रह राहु केतु सदा चंद्रमा के पातों पर कल्पित किए जाते हैं। पात की गति विलोम होती है।

ग्रहणाधिकार

ग्रहणाधिकारों में सूर्य तथा चंद्र के ग्रहणों का गणित है। चंद्रमा का ग्रहण भूछाया में प्रविष्ट होने से तथा सूर्यग्रहण चंद्रमा द्वारा सूर्य के ढके जाने से माना गया है। सूर्यग्रहण में लंबन के कारण भूकेंद्रीय चंद्र तथा हमें दिखाई देनेवोल चंद्र में बहुत अंतर आ जाता है। अत: इसके लिये लंबन का ज्ञान किया जाता है।

  • चंद्रशृंगोन्नति में चंद्रमा की कलाओं को ज्ञात किया जाता है।
  • ग्रहच्छायाधिकार में ग्रहों के उदयास्त काल तथा इष्टकाल में वेध की विधि
  • पाताधिकार में सूर्य और चंद्रमा के क्रांतिसाम्य का विचार किया जाता है।

भिन्न अयन तथा एक गोलार्ध में होने पर, सायन रविचंद्र के योग 180° के समय क्रांतिसाम्य होने पर, व्यतिपात तथा एक अयन भिन्न गोलार्ध में होने पर वही योग 360° के तुल्य हो तो क्रांतिसाम्य में वैधृति होती है। ये दोनों शुभ कार्यों के लिये वर्जित हैं। ग्रहयुति में ग्रहों के अति सान्निध्य की स्थितियों का (युद्ध समागम का) गणित है। भग्रहयुति में नक्षत्रों के नियामक दिए गए हैं।

पञ्चाङ्ग

भारतीय ज्योतिष प्रणाली से बनाए तिथिपत्र को पञ्चाङ्ग कहते हैं। पञ्चाङ्ग के पाँच अंग हैं : तिथि, वार, नक्षत्र, योग तथा करण। पञ्चाङ्ग में इनके अतिरिक्त दैनिक, दैनिक लग्नस्पष्ट, ग्रहचार, ग्रहों के सूर्यसान्निध्य से उदय और अस्त और चंद्रोदयास्त दिए रहते हैं। इनके अतिरिक्त इनमें विविध मुहूर्त तथा धार्मिक पर्व दिए रहते हैं।

पञ्चाङ्ग से आशय उन सभी प्रकार के पञ्चाङ्गों से है जो परम्परागत रूप प्राचीन काल से भारत में प्रयुक्त होते आ रहे हैं। ये चान्द्रसौर प्रकृति के होते हैं। सभी हिन्दू पञ्चाङ्ग, कालगणना की समान संकल्पनाओं और विधियों पर आधारित होते हैं किन्तु मासों के नाम, वर्ष का आरम्भ (वर्षप्रतिपदा) आदि की दृष्टि से अलग होते हैं। भारत में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख पञ्चाङ्ग ये हैं-

  • विक्रमी पञ्चाङ्ग – भारत के उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भाग में प्रचलित
  • तमिल पञ्चाङ्ग – दक्षिण भारत में प्रचलित
  • बंगाली पञ्चाङ्ग – बंगाल तथा कुछ अन्य पूर्वी भागों में प्रचलित
  • मलयालम पञ्चाङ्ग – केरल में प्रचलित सौर पंचाग

हिन्दू पञ्चाङ्ग का उपयोग भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीन काल से होता आ रहा है और आज भी भारत और नेपाल सहित कम्बोडिया, लाओस, थाईलैण्ड, बर्मा, श्री लंका आदि में प्रयुक्त होता है। हिन्दू पञ्चाङ्ग के अनुसार ही होली, गणेश चतुर्थी, सरस्वती पूजा, महाशिवरात्रि, वैशाखी, रक्षा बन्धन, पोंगल, ओणम ,रथ यात्रा, नवरात्रि, लक्ष्मी पूजा, कृष्ण जन्माष्टमी, दुर्गा पूजा, रामनवमी, विसु और दीपावली आदि मनाए जाते हैं।

विक्रम संवत् या विक्रमी भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित हिन्दू पंचांग है। यह नेपाल का और भारत में कई जगहों का सांस्कृतिक एवम् आधिकारिक पंचांग है। भारत में यह अनेकों राज्यों में प्रचलित पारम्परिक पञ्चाङ्ग है। नेपाल के सरकारी संवत् के रुप मे विक्रम संवत् ही चला आ रहा है। इसमें चान्द्र मास एवं सौर नाक्षत्र वर्ष (solar sidereal years) का उपयोग किया जाता है। प्रायः माना जाता है कि विक्रमी संवत् का आरम्भ 57 ई.पू. में हुआ था।

(विक्रमी संवत् = ईस्वी सन् + 57)

इस संवत् का आरम्भ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से और उत्तरी भारत में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। बारह महीने का एक वर्ष और सात दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत् से ही शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चन्द्रमा की गति पर रखा जाता है। यह बारह राशियाँ बारह सौर मास हैं। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रान्ति होती है। पूर्णिमा के दिन, चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा है, इसीलिए प्रत्येक 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है। जिस दिन नव संवत् का आरम्भ होता है, उस दिन के वार के अनुसार वर्ष के राजा का निर्धारण होता है। आरम्भिक शिलालेखों में ये वर्ष ‘कृत’ के नाम से आये हैं। 8वीं एवं 9वीं शती से विक्रम संवत् का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है।


मास       पूर्णिमा के दिन नक्षत्र जिसमें चन्द्रमा होता है

  1. चैत्र        चित्रा, स्वाति
  2. बैशाख    विशाखा, अनुराधा
  3. जेष्ठ        जेष्ठा, मूल
  4. आषाढ़    पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, सतभिषा
  5. श्रावण     श्रावण, धनिष्ठा
  6. भाद्रपद    पूर्वाभाद्रपद, उत्तरभाद्रपद
  7. आश्विन    अश्विन, रेवती, भरणी
  8. कार्तिक    कृत्तिका बदी, रोहणी
  9. मार्गशीर्ष  मृगशिरा, उत्तरा
  10. पौष       पुनर्वसु, पुष्य
  11. माघ       मघा, अश्लेशा
  12. फाल्गुन   पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त

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