श्रेष्ठ ज्योतिषी कैसे बनें
How to become an Astrologer
हालांकि सक्षम या श्रेष्ठ ज्योतिषी बनने का कोई कोर्स या रेसिपी तो संभव नहीं है, फिर भी नैसर्गिक रूप से ज्योतिष की ओर रूझान वाले साधक में कुछ ऐसे गुण जरूर होने चाहिए जो उसे श्रेष्ठ ज्योतिषी बनने में मदद कर सकते हैं। कई प्रसिद्ध ज्योतिषियों ने अपने कोण से श्रेष्ठ ज्योतिषी की विशिष्टताओं के बारे में बताया है, How to become an Astrologer उन्हीं में से कुछ बिंदू मैं यहां शेयर कर रहा हूं।
परंपरागत भारतीय ज्योतिष की मुख्य रूप से दो शाखाएं हैं, गणित और फलित। ज्योतिष का गणित भाग शुद्ध गणित है। थोड़ी क्लिष्ट गणित है, लेकिन सीखी जा सकती है। इसका अध्ययन कोई भी स्कॉलर आसानी से कर सकता है। जिन जातकों का बुध अच्छा होता है, वे अपेक्षाकृत अधिक तेजी से इस भाग को सीखते हैं। फाइनेंस, एकाउंटिंग, गणित, शिक्षण, बैंकिंग आदि बुध के क्षेत्र से जुड़े लोगों में ज्योतिष के गणित भाग का अध्ययन करने वाले बहुत अधिक मिलते हैं।
दूसरा महत्वपूर्ण भाग होता है फलित का, जहां गणित समाप्त होती है, वहां फलित शुरू होती है। गणनाएं करने बाद बनी कुण्डली सामने हैं और ज्योतिषी को उस कुण्डली का अध्ययन कर फलादेश करने हैं। यह बहुत क्लिष्ट भाग होता है। केवल बुध के भरोसे ज्योतिषी नहीं बना जा सकता, फलादेश नहीं किए जा सकते। बुध का रोल यहां आकर द्वितीयक हो जाता है। किसी भी ज्योतिषी के लिए समस्या का निदान यानी डायग्नोसिस और बाद में भविष्य निर्णय और आखिर में उपचार के तीन महत्वपूर्ण भाग होते हैं। केवल गणित में होशियार लोग पहले ही भाग यानी निदान में ही बुरी तरह फंस जाते हैं। कुण्डली देखकर उन्हें समझ ही नहीं आता कि समस्या कहां है, क्योंकि गणित वाले भाग में समस्या को खोजने का कोई सूत्र नहीं है।
यहां पर शुरू होता है गुरू, सूर्य और केतु का रोल। गुरू जीवकारक है, यह समझ देता है, सूर्य आरोग्यकारक है, यह दृष्टि देता है और केतु भेदकारक है, यह दर्शन यानी फिलासफी को खोलता है। जिस ज्योतिषी की कुण्डली में बुध के साथ तीनों ग्रहों का सकारात्मक सहयोग होगा, वही गणना के द्वारा कुण्डली का सटीक निर्णय कर पाएगा।
फलित के शुरूआती भाग में सिखाया जाता है कि पहले नक्षत्रों और ग्रहों के प्रति समझ पैदा करो। उनकी प्रकृति, उनके गुण, उनके कारकत्व का अध्ययन करो। इसके बाद राशियों और भावों की प्रकृति, गुण और कारकत्व के बारे में समझ पैदा की जाती है। किसी भी घटना के घटित होने में ग्रह, राशि और भाव के कारकत्व की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नक्षत्र अधिक गहराई से बताता है कि समस्या की प्रकृति क्या होगी। जिन ज्योतिषियों ने चारों तरह के कारकों का विस्तृत अध्ययन किया होता है, वे ही भविष्य की खिड़की से झांक पाते हैं।
अब इसे एक उदाहरण से समझतें हैं
उदाहरण के तौर पर एक जातक आता है और ज्योतिषी से पूछता है कि विवाह कब होगा। सामान्य बुद्धि कहती है कि सप्तम भाव पत्नी का होता है, लेकिन विवाह के बारे में इसके बारे में स्पष्टता नहीं आती है। परंपरागत भारतीय ज्योतिष के अनुसार केवल वही विवाह नहीं होता, जो कि प्रचलित अवधारणा है, विवाह के सनातन में आठ प्रकार बताए गए हैं। इसमें प्रजापति विवाह से लेकर पिशाच विवाह तक की अवधारणा शामिल है। केवल सप्तम भाव से जीवनसाथी मिलने की सूचना मिल सकती है। जीवनसाथी तो बिना विवाह के मिल सकता है, लिव-इन में मिल सकता है, प्रेम विवाह, गुप्त विवाह में मिल सकता है अथवा सामाजिक रीति से विवाह में मिल सकता है। हर प्रकार के विवाह का तरीका और प्रेक्षण अलग अलग है, जबकि वास्तव में जातक यह पूछना चाहता है कि आठ में से एक प्रकार देव विवाह कब होगा। इसके लिए दक्षिण के प्रसिद्ध ज्योतिषी के एस कृष्णामूर्ति (K S Krishnamurthy) ने जातक के सवाल के जवाब में द्वितीय, सप्तम और एकादश भाव कारक को शामिल करने का सुझाव दिया है।
विवाह के लिए तीन भाव क्यों? क्योंकि जातक परिवार का विस्तार करना चाहता है, यह द्वितीय भाव से देखा जाएगा, जातक जीवनसाथी चाहता है इसलिए सप्तम भाव देखा जाएगा, जातक सामाजिक रीति और लाभ देखना चाहता है, इसलिए एकादश भाव देखा जाएगा। ऐसे में जब तीनों भावों के कारकत्व एक दूसरे का सपोर्ट करेंगे, तभी जातक का विवाह होगा। अगर केवल सप्तम भाव ऑपरेट होगा तो जीवनसाथी मिल सकता है, विवाह होने की गारंटी नहीं। अगर केवल द्वितीय भाव ऑपरेट हो रहा हो तो परिवार में सदस्य बढ़ सकता है, विवाह अथवा जीवनसाथ मिलने की गारंटी नहीं। अगर द्वितीय और सप्तम ऑपरेट हो रहे हों तो जीवनसाथी मिल सकता है, परिवार में सदस्य बढ़ेगा, लेकिन सामाजिक रीति से विवाह होने की गारंटी नहीं होती। इसके साथ ही गुरू, शनि और मंगल जैसे ग्रहों की अनुकूलता भी इन भाव कारकों के साथ जरूरी होती है। यहां गुरू सामाजिकता, शनि स्थाई परिवर्तन और मंगल कार्यशीलता के साक्षी बनते हैं।
अब सामान्य तरीके से देखा जाए तो यह काम कम्प्यूटर भी कर सकता है कि जहां तीनों कारकत्व मिल रहे हों, वहां विवाह की तिथि निकाल दे, लेकिन बहुत से योग अब भी बाहर रह जाते हैं, उदाहरण के तौर पर उम्र। किसी जातक की कुण्डली में तीनों भावों का कारकत्व और ग्रहों की अनुकूलता पांच वर्ष की उम्र में बन जाती है, तो बिना आगा पीछा सोचे जातक के विवाह की उम्र पांच साल नहीं बता सकता। किसी जातक की कुण्डली में विवाह के योग कम से कम तीन बार बनते हैं। जब बचपन में यह योग बनेगा तो जातक अच्छे माहौल में रहेगा, सामाजिक कार्यों में शामिल होगा। युवावस्था में विवाह होगा और वृद्धावस्था में विवाह योग बनने पर जातक की अर्थी सजेगी। ऐसे में भाव कारक, ग्रहों और उम्र की सटीकता के साथ ज्योतिषी को यह भी देखना होता है कि कारक को नष्ट करने वाले योग तो नहीं बन रहे, तब एक फलादेश होगा। एक दक्ष ज्योतिषी कुछ मिनट में यह निर्णय कर लेता है, लेकिन अगर केवल गणित के भरोसे रहा जाए अथवा स्थाई सूत्रों को एक एक कर लागू किया जाए तो एक छोटे से प्रश्न को लेकर कई दिनों तक मगजमारी करनी पड़ सकती है। यहीं दक्ष ज्योतिषी और ज्योतिष का अध्ययन करने वाले सामान्य विद्यार्थी में अंतर आता है।
मैं ऐसे लोगों के संपर्क में आया हूं
- जो ज्योतिष को नहीं मानते
- जो ज्योतिष को सभी के सामने नहीं मानते, लेकिन अकेले में ज्योतिषी से सलाह लेते हैं
- जो ज्योतिषी की सलाह तो लेते हैं, लेकिन उसे कभी गंभीरता से नहीं लेते
- जो रोजाना सुबह अखबार में केवल अपनी राशि ही पढ़ते हैं, बाकी अखबार उनके लिए बेकार है
- जो किसी एक ही ज्योतिषी को मानते हैं, बाकी उनके लिए बेकार हैं
- जो लगातार विज्ञान और ज्योतिष की तुलना करते रहते हैं
- जो ज्योतिषी को कुण्डली दिखाते हुए घबराते हैं, क्योंकि वे भविष्य के प्रति आशंकित हैं
- जो ज्योतिष का गणित पक्ष पढ़ चुके हैं, लेकिन फलित पक्ष से एलर्जी है
- जो सालों से ज्योतिष पढ़ रहे हैं, लेकिन फलादेश करने की रीति नहीं जानते
- जो अपनी कुण्डली का अध्ययन करने के लिए ज्योतिष पढ़ते हैं
- जो अपने भाग्य को जानने और समझने के लिए ऑनलाइन लेख और वीडियो देखते रहते हैं
- जो चमत्कारी ज्योतिषी की तलाश करते रहते हैं
- जो अपनी समस्याओं के लिए ज्योतिषी से चमत्कारी उपचार पूछते हैं
- जो देश और दुनिया में घूम घूमकर अच्छे ज्योतिषियों की तलाश करते हैं और अपनी कुण्डली दिखाते हैं
जो जातक अपने फलादेशों के लिए ज्योतिषी पर निर्भर हैं, वे अपेक्षाकृत सुकून में रहते हैं, लेकिन खुद सीखने का प्रयास करने वाले जातकों में हमें दो प्रकार के लोग मिलते हैं। खुद की कुण्डली का अध्ययन करने वाले और गंभीरता से ज्योतिष का अध्ययन करने वाले। जो लोग सालों तक गणित का अध्ययन करने के बाद फलादेश करने के स्तर पर आने का प्रयास करते हैं और बुरी तरफ विफल रहते हैं, वे लोग कालांतर में ज्योतिष को ही भला बुरा कहने लगते हैं। समझने की जरूरत यह है कि गणित के बाद फलित भाग में गणनाओं का इस्तेमाल और इंट्यूशन होने पर ही कोई व्यक्ति सफल ज्योतिषी बन सकता है, बाकी लोगों के लिए मेधा होने के बावजू ज्योतिष दूर की कौड़ी रहेगा।